स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में
अर्थव्यवस्था पर कोविड-19 के विनाशकारी असर के बावजूद लोग इससे निबटने के लिए मोदी सरकार का व्यापक समर्थन करते दिखाई देते हैं.

इस साल दुनिया भर की सरकारें जबरदस्त पसोपेश में पड़ गईं. कोविड-19 ने उन्हें बस इतनी रियायत बख्शी कि या तो वे ज्यादा से ज्यादा तादाद में अपने नागरिकों की जान या फिर अधिकतम संख्या में उनकी आवीजिका बचा लें. ज्यादातर की तरह भारत सरकार ने भी जान बचाने का विकल्प चुना. ऐसा करते हुए उसे आजाद भारत की एक सबसे चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा और वह थी अर्थव्यवस्था का तेजी से गर्त में धंसते जाना.
ज्यादातर विश्लेषक संपूर्ण मंदी की आशंका को खारिज करते हुए कहते हैं कि यह बुरी हालत कुछेक तिमाहियों तक सीमित रहेगी, वहीं इस हकीकत से बचा नहीं जा सकता कि भारत की वृद्धि दर जबरदस्त गिरावट के दौर में पहुंच गई है. जहां इस बात को लेकर बहस चल रही है कि यह गिरावट कितनी है, यानी क्या भारत की वृद्धि दर पांच फीसद या उससे भी नीचे तक गिर गई है?
वहीं कोविड-19 की वजह से राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन और उसके बाद कुछ इलाकों में स्थानीय स्तरों पर लॉकडाउन के जो आर्थिक नुक्सान हुए, वे वाकई हलचल पैदा करने वाले हैं.
फिर हैरानी क्या कि लॉकडाउन के दौरान किए गए इंडिया टुडे देश का मिजाज सर्वे में भाग लेने वाले प्रतिभागियों के दिमाग में आर्थिक मुद्दे सबसे ज्यादा हावी थे. सर्वे में शामिल 63 फीसद जितनी भारी तादाद में लोगों ने कहा कि हाल में उनकी आमदनी में गिरावट आई है, जबकि 22 फीसद ने कहा कि वे अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे हैं. कृषि और कुछ हद तक ‘अनिवार्य वस्तुओं’ की आपूर्ति को छोड़कर अर्थव्यवस्था के तकरीबन तमाम क्षेत्रों में 24-25 मार्च की आधी रात के बाद लॉकडाउन के पहले महीने में ठहराव आ गया.
आवाजाही पर पाबंदियों और 'अनिवार्य वस्तुओं’ की अस्पष्ट परिभाषा का लॉजिस्टिक्स सेक्टर पर गहरा असर पड़ा, जब हजारों ट्रक राजमार्गों पर फंस गए. केंद्र की ढेरों अधिसूचनाओं से अफरातफरी और बढ़ गई, जब नीतिगत गफलतों के चलते राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय केंद्र के नियम-कायदों की अपने-अपने ढंग से व्याख्याएं करने लगे. यहां तक कि कंटेनमेंट जोन को छोड़कर दूसरी जगहों पर कुछ हद तक दोबारा खोलने की इजाजत दी भी गई, तो सामाजिक दूरी के सख्त नियमों के चलते आपूर्ति शृंखलाओं के तहस-नहस होने का खमियाजा कारोबार को भुगतना पड़ा.
सबसे ज्यादा गिरावट मांग में आई, सो अलग. नकदी के प्रवाह पर बड़ी चोट पड़ी और हॉस्पिटैलिटी तथा एयरलाइंस से लेकर मैन्युफैक्चरिंग और रिटेल क्षेत्रों तक की कंपनियों को नौकरी में कटौतियां, तनक्चवाहों में काट-छांट और नई भर्तियां बंद करनी पड़ीं. मैनपावर फर्म ग्लोबल कंसल्टेंट की एक रिपार्ट कहती है कि महामारी की वजह से भारत में करीब 13 करोड़ नौकरियों का खत्म होना तय है, जिनमें से 40 फीसद ब्लू-कॉलर नौकरियां यानी हाथ से किए जाने वाले काम होंगे.
महिंद्रा ग्रुप में मानव संसाधन (एचआर) के पूर्व प्रेसिडेंट और अब कार्यबल से जुड़े मामलों में कंपनी के सलाहकार राजीव दुबे कहते हैं कि कामगारों में बहुत ज्यादा डर और अनिश्चितता है. कंपनियां अनुभवी कर्मचारियों की भी छंटनी कर रही हैं और ऐसे में ऊंचे स्तर का तनाव साफ दिखाई दे रहा है, सबसे ज्यादा हॉस्पिटैलिटी और ट्रैवल सरीखे क्षेत्रों में, जहां मांग रसातल में पहुंच गई है. बाजार हिस्सेदारी के लिहाज से देश की सबसे बड़ी विमान सेवा कंपनी इंडिगो ने अपने कामगारों में 10 फीसद या करीब 2,300 कर्मचारियों की छंटनी की.
क्रिसिल की एक रिपोर्ट एयरलाइन उद्योग पर लॉकडाउन के दूरगामी असर की तरफ इशारा करती है, जो सेवाओं के कुछ हद तक दोबारा शुरू होने के बाद भी पड़ेगा. रेटिंग एजेंसी कहती है कि भारत में हवाई यात्री यातायात घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, दोनों क्षेत्रों में क्रमश: 40-45 फीसद और 60-65 फीसद तक घटने की संभावना है. मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र भी गहरी मुश्किल में है.
यहां तक कि स्टील और इंजीनयरिंग के भारी सामान का उत्पादन भी लॉकडाउन से पहले के दौर के मुकाबले अब भी करीब आधा ही है. ऐसे में यह होना ही था कि सर्वे में शामिल 23 फीसद लोगों ने कहा कि मोदी सरकार की एक ही सबसे बड़ी नाकामी बेरोजगारी है. इतना ही नहीं, सर्वे में शामिल 54 फीसद लोग अगले छह महीनों में हालात बेहतर होते नहीं देखते या फिर वे भविष्य को लेकर खासे अनिश्चित हैं.
इस हताश फलक के बावजूद लोग आर्थिक परेशानियों से निबटने के मामले में मोदी सरकार का मोटे तौर पर समर्थन करते दिखाई देते हैं. सर्वे में शामिल 71 फीसद जितनी बड़ी तादाद में लोगों ने इस क्षेत्र में उसके कामकाज को असाधारण या अच्छा आंका. कुल मिलाकर सरकार यह छाप छोड़ती मालूम देती है कि हालात उसके काबू में हैं, चाहे वह राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के जरिए वायरस से निबटना हो या सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की तरफ से दिए गए 20 लाख करोड़ रुपए के प्रोत्साहन पैकेज के जरिए आर्थिक संकट को संभालना हो.
ऐसा लगता नहीं कि इस प्रोत्साहन पैकेज ने उद्योग के लिए बहुत कुछ किया है, बावजूद इसके कि इसमें, मिसाल के तौर पर, एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) के लिए 3 लाख करोड़ रुपए के कर्ज का पैकेज भी शामिल है. लेकिन कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था कहीं बेहतर प्रदर्शन करती मालूम देती हैं. रबी की अच्छी फसल, सरकार की तरफ से खरीद का जबरदस्त अभियान और किसानों को साल में 6,000 रुपए देने वाली प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना ने, लगता है ग्रामीण मांग को बढ़ाने में खासी मदद की है.
इस सबने ग्रामीण इलाकों में खुशी के एहसास का माहौल पैदा किया हो सकता है, हालांकि डर इस बात का है कि यह एहसास शायद टिकाऊ न हो. इस मामले में लोगों की राय बंटी दिखाई देती है. सर्वे में शामिल 48 फीसद लोगों ने माना कि 2014 में मोदी के कमान संभालने के बाद उनकी आर्थिक हैसियत में सुधार आया है, वहीं 42 फीसद ने कहा कि उनकी माली हालत जस की तस है, जबकि 10 फीसद ने कहा कि उनकी स्थिति और ज्यादा खराब हुई है.
यहां गौर करने लायक बात यह है कि जिन लोगों ने कहा कि मोदी के कमान संभालने के बाद उनकी हालत जस की तस है, उनका प्रतिशत जनवरी 2019, अगस्त 2019 और जनवरी 2020 के देश का मिजाज सर्वेक्षणों के क्रमश: 29 फीसद, 21 फीसद और 18 फीसद से बढ़ गया है. यह बढ़ोतरी उन लोगों की वजह से हुई है जिन्हें पहले लगता था कि मोदी सरकार के मातहत उनकी आर्थिक हैसियत में दरअसल गिरावट आई है.
जनवरी 2019 के देश का मिजाज सर्वे में मोदी के मातहत अपनी हालत में गिरावट महसूस करने वाले लोग सर्वे में शामिल कुल लोगों के 26 फीसद थे, जबकि अगस्त 2019 में वे 31 फीसद और जनवरी 2020 में 27 फीसद थे. यही वह समूह है जिसमें देश का मिजाज के मौजूदा सर्वे में तेज गिरावट आई है और वे 10 फीसद रह गए हैं. नजरिए में बदलाव की एक वजह वे तमाम उपाय हो सकते हैं जिनका ऐलान वित्त मंत्री ने लॉकडाउन के बाद के दिनों में किया था और जिनमें वे उपाय भी शामिल थे जिनका लक्ष्य खासकर ग्राणीण इलाके थे.
सर्वे में शामिल 43 फीसद लोगों ने कहा कि मोदी सरकार का आर्थिक कामकाज कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार के मुकाबले बेहतर रहा है, जबकि 45 फीसद ने कहा कि यह यूपीए के कामकाज के बराबर ही है. केंद्र के समर्थन में साफ बढ़ोतरी भी हुई है. जनवरी 2020 के पिछले देश का मिजाज सर्वे में 30 फीसद लोगों ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों को यूपीए से बदतर आंका था. इस सर्वे में यह आंकड़ा गिरकर 10 फीसद पर आ गया है. यहां भी इस सकारात्मक धारणा की वजह रबी की बंपर फसल, खरीफ की रिकॉर्ड बुआई और गांव-देहातों पर केंद्र का जोर रहा हो सकता है, जिससे लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा आया है.
अक्सर कहा जाता है कि अच्छे संकट को कभी बेकार नहीं जाने देना चाहिए क्योंकि हर संकट अपने साथ कुछ न कुछ रचनात्मक प्रतिक्रिया का अवसर लेकर आता है. कोविड-19 महामारी ने जो तबाही मचाई, वह तो खैर मचाई ही, लेकिन इसने केंद्र सरकार को साहसी आर्थिक सुधारों की घोषणा का मौका भी दिया. इनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'आत्मनिर्भर भारत’ का राग भी शामिल है, जिसमें आर्थिक वृद्धि में जान फूंकने की खातिर जमीन और श्रम कानूनों में ढांचागत सुधार और तरलता में बेहतरी के जरिए भारत को मजबूत आत्मनिर्भरता की दिशा में ले जाने का संकल्प लिया गया.
सरकार की रणनीति में शामिल चार स्तंभों में सक्षम बुनियादी ढांचा विकसित करना, टेक्नोलॉजी से चलने वाली प्रणालियां विकसित करना, देश की जोश से भरी जनसांख्यिकीय को इस्तेमाल में लाना और घरेलू मांग में तेजी लाना शामिल हैं. कोविड-19 से पैदा आर्थिक संकट के बावजूद इन घोषणाओं ने यह धारणा बनाने में योगदान दिया कि संकट को वाकई अच्छी तरह संभाला गया है.
प्रोत्साहन पैकेज का एक सबसे बड़ा लक्ष्य एमएसएमई क्षेत्र था. इसमें 6 करोड़ फर्म आती हैं, जो भारत के जीडीपी में करीब 29 फीसद का योगदान और तकरीबन 12 करोड़ लोगों को रोजगार देती हैं. यह उन क्षेत्रों में से था जिन पर महामारी और उसके बाद लगाए गए लॉकडाउन की सबसे बदतर मार पड़ी. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एमएसएमई क्षेत्र को लक्ष्य करके छह निश्चित पहल का ऐलान किया था.
इनमें ये उपाय भी शामिल थे—3 लाख करोड़ रुपए का जमानत मुक्त कर्ज और उसके साथ कर्ज की 100 फीसद गारंटी, जिससे 45 लाख इकाइयों को फायदा मिलने की उम्मीद थी; संकट में फंसे एमएसएमई के लिए 20,000 करोड़ रुपए के छोटे कर्ज, जिनसे 2,00,000 फर्मों को फायदा मिल सकता था और इनमें बकाया कर्जों वाली वे फर्म भी थीं जिनके कर्जों को संकटग्रस्त या गैर-निष्पादित परिसंपतियां मान लिया गया था; और 10,000 करोड़ रुपए के साथ एक कोष की स्थापना के जरिए एमएसएमई में 50,000 करोड़ रुपए की अंशपूजी लगाना.
वित्त मंत्री ने जिन अन्य उपायों का ऐलान किया, उनमें गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी), आवासीय वित्त कंपनियों और सूक्ष्मवित्त संस्थाओं (एमएफआइ) के लिए 30,000 करोड़ रुपए की एक विशेष तरलता योजना; एनबीएफसी और एमएफआइ की देनदारियों के लिए 45,000 करोड़ रुपए की आंशिक ऋण गारंटी योजना; और ऊर्जा वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के लिए 90,000 करोड़ रुपए की तरलता मुहैया करने की योजना शामिल थीं.
रियल एस्टेट क्षेत्र की फर्मों को भी कुछ राहत दी गई. मसलन, लॉकडाउन की वजह से जिन डेवलपर की परियोजनाएं रुक गई थीं, उन्होंने रेरा (रियल एस्टेट नियामकीय प्राधिकरण) के तहत अनुपालन की समयसीमाओं में ढील के चलते कुछ राहत की सांस ली. वहीं एक निश्चित सीमा से कम आमदनी वाले शहरी रहवासियों के घर कर्ज पर अनुदान देने वाली कर्ज से जुड़ी सब्सिडी योजना को एक साल बढ़ाकर सस्ते घरों की मांग में बढ़ोतरी की उम्मीद की गई. जब पूछा गया कि क्या वे आर्थिक संकट से निबटने के लिए सरकार की इन तमाम योजनाओं में से किसी एक के तहत कर्ज लेना चाहेंगे, 58 फीसद उत्तरदाताओं ने कहा कि वे वाकई लेना चाहेंगे, जबकि 34 फीसद ने इसका जवाब नहीं में दिया.
इस बीच, रिजर्व बैंक ने भी तरलता में सुधार के लिए कई कदम उठाए. इनमें बैंकों को कर्ज की अदायगी पर अपने उपभोक्ताओं को तीन माह के मोरेटोरियम की पेशकश की छूट देना और लॉकडाउन की शुरुआत के बाद से ही केवल लंबी अवधि के रेपो ऑपरेशनों के जरिए बैंकिंग प्रणाली में 1.12 लाख करोड़ रुपए की अंशपूंजी डालना शामिल था. हालांकि इन उपायों के असर के आकलन के लिहाज से अभी ये शुरुआती दिन हैं और इनमें से कुछ के असर केवल मध्यम से लंबी अवधि में दिखाई देंगे, लेकिन आम जनता मोटे तौर पर संतुष्ट नजर आती है.
सर्वे में शामिल 55 फीसद जितनी अच्छी-खासी संख्या में लोगों ने कहा कि प्रोत्साहन पैकेज उनकी माली हालत में बदलाव लाने के लिए काफी था, जबकि इससे खासे कम 33 फीसद लोगों ने कहा कि नहीं, यह काफी नहीं था. तो भी आम लोगों का एक तबका है जो महसूस करता है कि खासकर जरूरतमंद लोगों के हाथ में और ज्यादा रकम देने के लिहाज से और ज्यादा किया जाना चाहिए था. एमएसएमई क्षेत्र के लिए जरूरत तनख्वाहें देने और मौजूदा कर्जों पर ब्याज चुकाने के लिए मदद देने की थी, न कि नए कर्ज मुहैया करवाने की.
गता है आत्मनिर्भर भारत अभियान ने किसी न किसी रूप में आम जनता के मन पर अपनी छाप छोड़ी है. सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा 53 फीसद लोगों ने कहा कि यह बिल्कुल सही समय पर छेड़ा गया अभियान है, जबकि 38 फीसद की राय है कि भारत के पास आत्मनिर्भर बनने की क्षमता अब भी नहीं है. (सरकार की बुनियादी 'मेक इन इंडिया’ पहल बेशुमार नीतिगत देरियों और अफसरशाही के अडंग़ों की बदौलत दम तोड़ चुकी है.)
हालांकि कोविड-19 के बाद की दुनिया में, जहां कई देश अपने भीतर ध्यान केंद्रित कर रहे और शायद व्यापार के लिए रुकावटें खड़ी कर रहे होंगे, हो सकता है 'आत्मनिर्भरता’ का नया नजरिया ही सही नुस्खा हो. अहम बात अलबत्ता यह है कि भारत अपनी आर्थिक रीढ़ यानी एमएसएमई क्षेत्र को किस तरह खड़ा करता है.
चीन का उभार बताता है कि यह हासिल करना मुमकिन भी है और जरूरी भी. भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआइ) के चीफ इकोनॉमिस्ट सौक्वयकांति घोष ने कहा है कि भारत पांच साल की अवधि में अपने निर्यात 20-194 अरब डॉलर के दायरे में कई गुना बढ़ा सकता है, लेकिन ऐसा वह तभी कर सकता है जब क्षमताओं का निर्माण करे और चीन से बाजार हिस्सेदारी छीन ले.
इस मामले में अभी बहुत कुछ करना बाकी है. इस साल मई में एसबीआइ के एक नोट में कहा गया कि विश्व बैंक के 'कारोबार करने में आसानी’ सूचकांक में रैंकिंग में सुधार लाने के बावजूद भारत अपने पारंपरिक निर्यात बाजारों में भी हाथ-पैर मार रहा है. विशेषज्ञ बताते हैं कि महज बड़े निवेशकों के लिए चीजें आसान बनाने से न तो अर्थव्यवस्था की वृद्धि में मदद मिलती है और न ही देश के भीतरी भूभागों में नौकरियों में इजाफा होता है. भारत को विदेशी निवेशों पर नतीजों से जुड़ी निश्चित शर्तें लगानी होंगी, जैसा चीन ने किया.
दूसरों का कहना है कि हमें नियम-कायदों में उन आंशिक बदलावों की नाकामी से सीखना चाहिए, जो विशेष आर्थिक जोन के लिए किए गए थे, और ऐसे जोन का निर्माण करना चाहिए जो मौजूदा औद्योगिक और श्रम कानूनों से पूरी तरह मुक्त हों और जहां अनुपालन की प्रक्रियाएं ज्यादा सरल हों. उनका कहना है कि सरकार को 'चीनी उत्पादों के बहिष्कार’ के नारे से आगे जाना चाहिए और जिन इलाकों में संभावना है, वहां विश्वस्तरीय क्षमताओं का निर्माण करना चाहिए, ताकि भारत वैश्विक फलक पर प्रतिस्पर्धी खिलाड़ी बन सके.
महामारी के आर्थिक नतीजों को संभालने के लिए सरकार को जो भी वाहवाही मिलती दिखाई दे रही है, उसके बावजूद यह एहसास भी कहीं न कहीं सिर उठा रहा है कि सरकार की नीतियों ने केवल बड़े कारोबारों को फायदा पहुंचाया और छोटे कारोबारों को नजरअंदाज किया है. सर्वे में शामिल एक-तिहाई (33 फीसद) लोगों ने कहा कि सरकार की नीतियों ने बड़े कारोबारियों की मदद की, जबकि 45 फीसद ने कहा कि दोनों को ही फायदा मिला है.
आर्थिक मोर्चे पर आने वाली तमाम डरावनी खबरों के बावजूद देश का मिजाज सर्वे इशारा करता है कि मोदी सरकार कामयाबी के साथ यह बात लोगों के गले उतारने में कामयाब रही है कि वह हालात में सुधार के लिए तमाम उपाय लागू कर रही है और साथ ही लंबे वक्त के लिए भारत को आत्मनिर्भर बना रही है. यह भलीभांति बताता है कि अब तक कोविड-19 को संभालने की अपनी कोशिशों के लिए केंद्र सरकार को सर्वे में शामिल लोगों का इतना ठोस समर्थन क्यों मिल रहा है.
अलबत्ता अर्थव्यवस्था अगर लंबे वक्त तक बदहाली के दौर में रहती है और रोजगार तथा आमदनी के मोर्चे पर हालात और बिगड़ते हैं, तो यह भावना छूमंतर होकर नाराजगी में बदल सकती है. इससे आत्मसंतोष के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती. सरकार को अपने असलहे में मौजूद तमाम हथियारों के साथ महामारी और उसके भारी-भरकम आर्थिक नतीजों से लडऩा जारी रखना ही चाहिए.