सबसे ज्यादा प्रोटीन, फिर भी खेसारी दाल को भारत सरकार ने बैन क्यों कर दिया था?

कैसी भी स्थिति और मिट्टी पर आसानी से उगने वाले खेसारी की खेती पर 1961 में प्रतिबंध लगा दिया गया क्योंकि 'गरीबों की दाल' ने लोगों को विकलांग बनाना शुरू कर दिया था

खेसारी का पौधा (बाएं) और उसका दाल (दाएं)
खेसारी का पौधा (बाएं) और उसकी दाल (दाएं)

'करियर मटरा पियर पिसान, जा के खाये, गोड़ नसान.' यूपी-बिहार से लेकर मध्य प्रदेश तक गांव-देहात के इलाकों में ये कहावत बुजुर्ग किसी चेतावनी संदेश की तरह कहते हैं. जिसका मोटे तौर पर अर्थ है- काला मटर और उसका पीला आटा जो भी खाता है उसके पैर का नाश हो जाता है. 1960 के दौरान ये कहन आम हो गया था क्योंकि खेसारी दाल ने लोगों को विकलांग बनाना शुरू कर दिया था.

खेसारी दाल जिसका वैज्ञानिक नाम लैथाइरस सैटाइवर है, दलहन है. खेसारी का साग भी गांवों में प्रचलन में है. आसानी से और खूब पैदावार वाली यह फसल कभी भारत में कहर बन गई थी. करीब पांच दशक से ज्यादा वक्त तक इसे देश में प्रतिबंधित किया गया था. हालांकि बाद में इसकी खेती के लिए छूट दे दी गई.

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव-2023 के दौरान में कांग्रेस पार्टी ने अपनी घोषणा पत्र में खेसारी दाल को लेकर एक वादा किया था. पार्टी ने कहा था कि सरकार बनने पर खेसारी दाल की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदी जाएगी. हालांकि चुनाव में कांग्रेस की हार हो गई. हार के साथ ही किसानों का एमएसपी पर खेसारी दाल बेचने का सपना धरा का धरा रह गया. लेकिन आज एक नज़र डालेंगे भारत में खेसारी की खेती पर.

1947 में भारत आजाद हुआ. इस दौरान गरीब तबके के लिए खाने का सबसे मुख्य हिस्सा था खेसारी. इस वजह से इसे गरीबों की दाल कहा गया. आसानी से इसकी खेती की जा सकती थी, पैदावार भी खूब. और तो और ज़मींदार मज़दूरी के बदले मज़दूरों को खेसारी की दाल ही दिया करते थे. बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और एकाध राज्यों में गरीब इस पर पूरी तरह आश्रित थे.

कैसी भी स्थिति और मिट्टी पर आसानी से उगने वाली खेसारी की खेती पर 1961 में प्रतिबंध लगा दिया गया. क्योंकि 'गरीबों की दाल' ने लोगों को विकलांग बनाना शुरू कर दिया. इसे खाने की वजह लैथिरिजम या कलायखंज की बीमारी होने लगी. इस बीमारी में इंसान के कमर के नीचे के अंग काम करना बंद कर देते हैं. लैथिरिजम शब्द खेसारी के वैज्ञानिक नाम लैथाइरस सैटाइवस से ही बना है.

पौष्टिक और प्रोटीन से भरपूर और हरे मटर जैसा दिखने वाला खेसारी जहर की तरह काम क्यों कर रहा था? खेसारी में न्यूरोटॉक्सिन और कुछ ज़हरीले एसिड पाए जाते हैं. जो सेहत के लिए बेहद हानिकारक होता है. हालांकि ये इंसान को विकलांग कर देने जितना घातक तब साबित होता है जब इसे बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जाए. बहुत ज्यादा यानी कितना? इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि एक वक्त में गांव के इलाकों में लोग खेसारी के आटे की रोटी और खेसारी की दाल बनाकर ही खाते थे और सब्जी के बदले खेसारी की साग.

विंध्य के इलाके में गरीबी थी. उसी इलाके में इसका कहर ज्यादा देखने को मिला. रीवा जिले के पनासी गांव का हाल तो ये हुआ कि इसे 'लंगड़ों का गांव' कहा गया. 1983 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए फैसला दिया कि मज़दूरी के बदले खेसारी नहीं दिया जाएगा. हालांकि बाद के वर्षों में इससे प्रतिबंध हटाने की मांग हुई.

बिहार के सिवान जिले से आने वाले 55 साल के किसान रामाशंकर कहते हैं, "खेसारी बहुत ज्यादा खाने पर तो अभी भी दिक्कत हो जाएगी. और ये बात तो हर दाल पर ही लागू होता है. इसी बात का ख्याल करके लोगों ने कहा कि जैसे दूसरे फसलों की नई-नई किस्में विकसित की जा रही हैं वैसा ही खेसारी के साथ भी हो."

1995 में कृषि संबंधी स्थायी समिति बनाई गई जिसकी अध्यक्षता नीतीश कुमार (बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री) कर रहे थे. समिति ने सिफारिश की थी कि प्रतिबंध जारी रखा जाए. क्योंकि प्रतिबंध हटा तो खेसारी की खेती को बढ़ावा मिलेगा और महामारी फैल जाएगी. समिति ने इसकी उन्नत किस्मों पर ध्यान देने की बात भी कही थी और कृषि संस्थानों और वैज्ञानिकों ने इसकी उन्नत किस्मों पर काम किया.

रमाशंकर बताते हैं, "बैन हटाने से पहले कुछ नई किस्मों को आजमाया गया. सबकुछ ठीक रहने पर रतन और प्रतीक या फिर महातिवड़ा की बुआई शुरू हो गई." लेकिन ये प्रतिबंध इतनी जल्दी नहीं हटा था. पांच दशक बाद 2016 में खेसारी दाल की खेती से बैन हटाया गया. किसानों ने नई और उन्नत किस्म की खेसारी की खेती शुरू की.

आज छत्तीसगढ़ में खेसारी की खेती सबसे ज्यादा होती है. छत्तीसगढ़ में लगभग 2.5 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती होती है और उत्पादन करीब 12.5 लाख क्विंटल है. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में इसकी खेती खूब होती है. ये खेती असींचित इलाकों और काली मिट्टी वाले खेतों में होती है.

इसकी बुआई की विधि रमाशंकर बताते हैं, "धान की कटाई से तीन हफ्ते पहले खड़ी फसल में ही इसके बीज की छिड़काई होती है. धान की कटाई के बाद खेत की जुताई होती है. ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं होती. लेकिन बहुत सूखे की स्थिति में 60-70 दिन बाद एक बार हल्की सिंचाई की जाती है. सबसे बड़ी चुनौती खर-पतवार के उग आने की है. इसकी वजह से कुछ दिनों पर सोहनी करनी पड़ती है. खाद के तौर पर प्रति हेक्टेयर 20 किलो यूरिया, 40 किलो पोटाश, 40 किलो डीएपी का इस्तेमाल करना पड़ता है."

खेसारी दाल में 31 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है. लेकिन सवाल है कि उन्नत किस्मों में वो विषैला ओडीएपी कितना है, जो लोगों अपंग कर देता है. खेसारी दाल की अलग-अलग जातियों में विषैले ओडीएपी की मात्रा 0.15 से 0.35 प्रतिशत तक रहती है. रतन में ये 0.06 प्रतिशत, प्रतीक में 0.08 प्रतिशत और महातिवड़ा में 0.07 प्रतिशत जिनमें विषैले ओडीएपी की मात्रा कम है.

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