दिल्ली के सीएम : कैसे सुषमा स्वराज और हर्षवर्धन को 'गच्चा' देकर मुख्यमंत्री बने थे साहिब सिंह वर्मा?
दिल्ली के चौथे सीएम साहिब सिंह वर्मा को दिल्ली बीजेपी का जमीनी नेता माना जाता था. लेकिन सीएम रहते हुए उनके कार्यकाल में महंगाई ने ऐसा त्राहिमाम मचाया कि हाईकमान ने उनसे इस्तीफा ले लिया था

कभी-कभी यूं होता है कि नाम किसी का बहुत रौबदार हो, लेकिन वह इंसान दीन-हीन हो. इसका उल्टा भी हो सकता है. कुछ ऐसा ही अजब विरोधाभास दिल्ली के चौथे मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के साथ था. नाम उनका साहिब था, लेकिन काम सादगी से भरे एक आम इंसान की ही तरह था.
साहिब जब दिल्ली के सीएम थे तो प्रदेश के गांवों की बदहाली देखने के लिए वे हर सप्ताह एक रात किसी गांव में बिताते. उनकी सादगी ऐसी थी कि सीएम पद से इस्तीफा देने के अगले ही दिन वे अपने परिवार वालों के साथ डीटीसी बस पर बैठकर घर की ओर चल दिए थे. लेकिन नियति थी कि हमेशा ही उनके साथ कठोर बनी रही.
नियति के कठोरपन की परिणति वो 30 जून, 2007 की तारीख थी. शनिवार की दोपहर की उस चिलचिलाती धूप में एक टाटा सफारी गाड़ी दिल्ली-जयपुर हाईवे पर दौड़ी चली जा रही थी. गाड़ी अपनी रफ्तार में थी कि तभी उससे अचानक अलवर जिले के शाहजहांपुर के खुंडला गांव के पास उल्टी दिशा से आ रही एक कार्गो ट्रक भिड़ गई. वो भिड़ंत इतनी जोरदार थी कि टाटा सफारी के परखच्चे उड़ गए. साहिब सिंह वर्मा उसी टाटा सफारी में सवार थे, वे नहीं बचे.
वैसे तो जब साहिब सिंह दिल्ली के सीएम थे तब उनके ढाई साल के कार्यकाल में उन्हें एक बार नहीं, चार-चार बार कुर्सी से गिराने की साजिशें हुई थीं, लेकिन वे हर बार उन साजिशों को नाकाम करने में सफल रहे थे. लेकिन इस बार किस्मत उनके प्रति इतनी बेरहम निकली कि उन्हें दूसरा जीवनदान भी नहीं दिया.
18 जुलाई, 2007 को छपी इंडिया टुडे मैगजीन में साहिब सिंह के निधन पर एक खास रिपोर्ट छपी थी. उसमें संवाददाता मनोज वर्मा लिखते हैं, "जब साहिब सिंह वर्मा के निधन की खबर फैली तो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता सकते में आ गए. यह सदमा बीजेपी को इस लिए भी जोर का लगा क्योंकि कोई साल भर पहले ऐसे ही एक शनिवार के दिन प्रवीण महाजन ने अपने भाई, वरिष्ठ बीजेपी नेता प्रमोद महाजन का शरीर गोलियों से छलनी कर दिया था. महाजन की बीजेपी में बड़ी अहम भूमिका थी. इसलिए, उनके बाद पार्टी को जनाधार वाले नेताओं की खास तौर पर जरूरत थी."
मनोज वर्मा आगे लिखते हैं, "इसी क्रम में एक नाम राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को साहिब सिंह का भाया और उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर पंजाब का प्रभारी बना दिया गया. कभी मदनलाल खुराना बीजेपी में पंजाब की राजनीति संभाला करते थे. पर नियति को कुछ और ही मंजूर था." साहिब सिंह वर्मा के निधन पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा, "ग्रामीण क्षेत्रों की आवाज मुखर करने वाला व्यक्ति चला गया." लेकिन, वर्मा दिल्ली के हाई क्लास इलाके में एक जमीनी नेता के तौर पर कैसे स्थापित हुए?
साहिब सिंह वर्मा : बीजेपी का जाट-किसान नेता
सालों तक दिल्ली की राजनीति पर पंजाबीभाषी शरणार्थियों और धनी-मानी बनियों का दबदबा रहा. उसके बाद हिंदीभाषी जाट उभरकर आए और 1996 में जब साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री बने, तो वह इस समुदाय के लिए सबसे शुभ घड़ी थी. सीएम पद पर रहते हुए साहिब सिंह का दिल गांव-देहातों के लिए हमेशा धड़कता रहा.
मनोज वर्मा अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "दिल्ली में सीएम रहते हुए साहिब सिंह ने दिल्ली देहात के गांवों के लिए लगभग 200 करोड़ रुपये की लघु मास्टर प्लान योजना बनाई. राज्य के गांवों की बदहाली देखने के लिए वे हर सप्ताह एक रात किसी गांव में बिताते. घेवरा गांव में स्पोर्ट्स स्कूल और स्टेडियम बनाने की उनकी पहल, दिल्ली देहात के लिए अलग से विकास फंड जैसे उनके फैसलों ने उन्हें बीजेपी का जाट-किसान नेता बना दिया."
हालांकि मनोज वर्मा के मुताबिक असल में साहिब सिंह वर्मा का ऐसा नेता बनना पार्टी और साहिब दोनों की मजबूरी था. बीजेपी को ग्रामीण पृष्ठभूमि का एक ऐसा नेता चाहिए था, तो साहिब सिंह के सामने नब्बे के उस दौर में दिल्ली बीजेपी में अपनी पकड़ बनाने की चुनौती थी. तब यह माना जाता था कि दिल्ली की बीजेपी राजनीति पंजाबी-वैश्य समुदाय पर ही केंद्रित रहती है और केदारनाथ साहनी, विजय कुमार मल्होत्रा और खुराना के इर्द-गिर्द घूमती है. ऐसे में साहिब सिंह को अपनी जगह बनाने के लिए कुछ नया करना था.
साहिब सिंह गांव वालों के लिए शिक्षा की अहमियत समझते थे. इसीलिए जब मंत्री बने तो आईपी यूनिवर्सिटी के अलावा दर्जनों कॉलेज शुरू किए. मुख्यमंत्री बने तो हर गांव को लाइब्रेरी और स्कूल का विचार दिया. अपने आखिरी दौरे पर वे राजस्थान इसी सिलसिले में गए थे कि वे वहां गांव वालों के लिए एक यूनिवर्सिटी का निर्माण करना चाहते थे. तय तो यह भी था कि वे राजस्थान से वापसी के बाद 1 जुलाई को पंजाब के सीएम प्रकाश सिंह बादल और दिल्ली के कुछ दूसरे नेताओं के साथ गुजरात जाने वाले थे, लेकिन यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई.
साहिब सिंह वर्मा क्यों जाना चाहते थे गुजरात?
जून 2007 में अपने निधन से यही कोई तीन महीने पहले साहिब सिंह वर्मा ने गुजरात जाने के बारे में बात की थी. उस साल मार्च महीने में हुए दिल्ली नगर निगम चुनावों में बीजेपी ने धमाकेदार जीत दर्ज की थी, और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी में काफी सकारात्मक माहौल बनने लगा था. बहुत संभावना थी कि तब बीजेपी के सीएम पद के लिए उम्मीदवार साहिब सिंह ही होते. लेकिन उनपर एक अलग ही धुन सवार थी और वह थी अपने काम को लेकर जुनून.
इंडिया टुडे के 18 जुलाई, 2007 के अंक में संवाददाता मनोज वर्मा लिखते हैं, "दिल्ली नगर निगम चुनावों में जीत की खुशी में प्रदेश बीजेपी ने प्रगति मैदान में एक भव्य भोज का आयोजन किया था. कई वरिष्ठ नेता यह संकेत देने में लगे थे कि अगले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के वे भी दावेदार हो सकते हैं. लेकिन जब इस बारे में एक संवाददाता ने पूर्व सीएम साहिब सिंह वर्मा से सवाल किया तो उन्होंने कहा - मैं उन नेताओं में से नहीं हूं जो सिर्फ मुख्यमंत्री बनने के लिए मीडिया में अपना नाम उछलवाते रहते हैं. मैं तो सांसद भी नहीं हूं तब भी काम कर रहा हूं."
उस समय बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष साहिब सिंह वर्मा ने आगे कहा, "भूकंप प्रभावित गुजरात के भुज में जिस गांव को मैंने गोद लिया था वहां स्कूल और कॉलेज बनकर तैयार हैं. इसी साल जून-जुलाई में जनता के लिए समर्पित कर दूंगा." राजस्थान से लौटने के बाद साहिब सिंह वर्मा 1 जुलाई को पंजाब के सीएम प्रकाश सिंह बादल और दिल्ली के कुछ दूसरे नेताओं के साथ गुजरात जाने वाले थे, मगर उनकी यह इच्छा अधूरी ही रह गई.
प्रोफेसर के कहने पर नाम में 'वर्मा' जोड़ा, केशवपुरम से बने वार्ड पार्षद
दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर एक गांव बसा है, नाम है - मुंडका. यहीं 16 मार्च, 1943 को साहिब सिंह एक जाट किसान परिवार में पैदा हुए. साहिब ने एएमयू से लाइब्रेरी साइंस की पढ़ाई की. बताते हैं कि यहीं नामांकन के समय एक प्रोफेसर ने साहिब सिंह को सलाह दी कि वे अपने नाम में 'वर्मा' जोड़ लें. वजह यही कि उन दिनों जाटों को लेकर यूनिवर्सिटी में पूर्वाग्रह था. साहिब सिंह अब साहिब सिंह वर्मा बन चुके थे. एएमयू से डिग्री लेकर लौटे तो उन्हें दिल्ली की म्यूनिसिपैलिटी की लाइब्रेरी में नौकरी मिल गई.
दी लल्लनटॉप की एक रिपोर्ट बताती है कि उन दिनों दिल्ली के नगर निगम में जनसंघ का दबदबा हुआ करता था, और जनसंघ में संघ वालों का. साहिब सिंह वर्मा शुरुआत से ही RSS से जुड़े थे. साथ ही वे वर्ल्ड जाट आर्यन फाउंडेशन के प्रेसिडेंट भी थे. इमरजेंसी के दौर में वॉरंट के बाद भी वे गिरफ्तारी से बचे रहे थे. बहरहाल, साल 1977 में उस समय के प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई की सरकार में दिल्ली में स्थानीय निकाय चुनाव हुए तो साहिब सिंह ने डेब्यू किया. इस चुनाव में वे केशवपुरम् नगर निगम सीट से वॉर्ड पार्षद चुन लिए गए. '80 के दशक में उन्होंने जीत का ये सिलसिला जारी रखा और इससे बीजेपी संगठन में उनका कद भी बढ़ा.
यह साल 1991 था, आम चुनाव का बिगुल बज चुका था. बीजेपी ने साहिब सिंह को बाहरी दिल्ली लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया. तब साहिब सिंह को चुनौती दे रहे थे कांग्रेस के सज्जन सिंह. वही सज्जन सिंह, जिनपर '84 के सिख दंगों के लिए सवाल उठे थे. वे 11 साल के अंतराल के बाद आम चुनाव लड़ रहे थे. शकूर बस्ती से तुगलकाबाद तक फैली लोकसभा सीट पर सज्जन सिंह, साहिब सिंह वर्मा पर भारी पड़े. साहिब करीब 86 हजार वोटों से हारे, लेकिन इसके बावजूद भी वे ग्रामीण दिल्ली के सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित हो चुके थे.
1993 में दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए. इस बार साहिब सिंह वर्मा शालीमार बाग से बीजेपी के उम्मीदवार थे. इस चुनाव में साहिब ने कांग्रेस के एससी वत्स को करीब 21 हजार वोटों से हराया. 70 में 49 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने मदन लाल खुराना के नेतृत्व में सरकार बनाई, लेकिन साहिब सिंह वर्मा के कद को देखते हुए उन्हें नंबर-2 की पोस्ट शिक्षा और विकास मंत्री बनाया गया. लेकिन सरकार के गठन के कुछ दिन बाद से ही खुराना और साहिब सिंह वर्मा के बीच मतभेद की खबरें आने लगीं.
जब बीजेपी के दो बड़े नेताओं को गच्चा देकर सीएम बने साहिब सिंह वर्मा!
यह साल 1995 की बात है. बीजेपी ने गुजरात में पहली बार कुल 182 में से 121 सीटों पर जीत हासिल कर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी. लेकिन अक्टूबर का महीना आते-आते गुजरात बीजेपी के दो बड़े नेता सत्ता के लिए एक-दूसरे गुत्थम-गुत्था हो गए. इनमें से एक तो उस समय के राज्य के मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल ही थे, जबकि दूसरे गुजरात बीजेपी के कद्दावर नेता शंकर सिंह बघेला थे.
केशुभाई की सरकार से नाराज वाघेला खेमे के 44 विधायकों ने बगावत कर दी. पार्टी के आलाकमान के दखल के बावजूद मामला शांत नहीं हुआ. नतीजा यह हुआ कि केशुभाई को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ गया. अभी इस घटना को तीन महीने ही बीते थे कि दिल्ली में भी ऐसी ही स्थिति आन पड़ी. चर्चित जैन हवाला कांड में नाम आने के बाद से बीजेपी सीएम मदन लाल खुराना को फरवरी 1996 में इस्तीफा देना पड़ा था.
उस समय दिल्ली बीजेपी में गुटबंदी तो तेज थी ही. खुराना के इस्तीफा देने के बाद से ही अलग-अलग खेमों के नेताओं ने दिल्ली के सीएम पद के लिए अपने पसंदीदा नेताओं का नाम आगे बढ़ाना शुरू किया. सीएम पद की दौड़ में उस समय तीन प्रमुख नाम थे - सुषमा स्वराज, हर्षवर्धन और साहिब सिंह वर्मा. ज्यादातर केंद्रीय नेता सुषमा के सीएम बनने के फेवर में थे, जबकि मदनलाल खुराना गुट हर्षवर्धन को सीएम बनाना चाहता था.
आखिर में 23 फरवरी को विधायकों की बैठक हुई. लेकिन इस बैठक में एक अप्रत्याशित चीज हुई. उम्मीद के बिलकुल उलट दिल्ली बीजेपी के 48 में से 31 विधायकों ने साहिब सिंह वर्मा को सीएम पद के लिए अपना समर्थन दे दिया. इधर, प्रदेश बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के जेहन में अब भी गुजरात की घटना बासी नहीं हुई थी. ऐसे में विधायकों की बात मानने की लिए शीर्ष नेतृत्व को मजबूरन तैयार होना पड़ा. इस तरह साहिब सिंह वर्मा दिल्ली के चौथे मुख्यमंत्री बने.
जब साहिब सिंह वर्मा पर लगा मर्डर का आरोप और खतरे में आ गई अटल सरकार
मार्च 1998 की बात है. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 13 दलों की गठबंधन सरकार बनी. सरकार बनने के करीब 8 महीने बाद ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव हो रहा था. पूर्व सीएम साहिब सिंह वर्मा ये चुनाव नहीं लड़ रहे थे. उन्होंने खुद ही ये फैसला लिया था. लेकिन उनके गांव में एक मर्डर हुआ और वो दोबारा से सुर्खियों में लौट आए. दरअसल, उनके गांव मुंडका में वेद सिंह उर्फ लालू पहलवान नाम के एक शख्स की हत्या हो गई.
वेद सिंह बीजेपी के ही नेता थे, लेकिन जब पार्टी ने उन्हें विधानसभा चुनाव का टिकट नहीं दिया तो वह समता पार्टी के टिकट पर नांगलोई जाट विधानसभा से चुनाव लड़े. उनके खिलाफ बीजेपी की तरफ से दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री देवेंदर सिंह शौकीन चुनाव लड़ रहे थे. शौकीन को साहिब सिंह का करीबी माना जाता था. ट्रिब्यून की एक रिपोर्ट के मुताबिक पोलिंग से 15 दिन पहले हुए इस मर्डर के बाद वेद के परिवार वालों ने साहिब सिंह के परिवार पर आरोप लगाए. इस मर्डर के चलते समता पार्टी और बीजेपी में भी कलह बढ़ गई.
इस वक्त समता पार्टी केंद्र में अटल सरकार को समर्थन दे रही थी. समता पार्टी दिल्ली में सीट नहीं दिए जाने से बीजेपी से नाराज थी. ऐसे में समता पार्टी के अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडिस ने इस मुद्दे पर बीजेपी को घेरना शुरू कर दिया. जॉर्ज, वेद सिंह के गांव गए और उनके परिवार वालों से भी मिले. समता पार्टी ने बयान जारी कर कहा कि अगर मामले की सीबीआई जांच नहीं हुई तो हम सरकार से समर्थन वापस ले सकते हैं.
हालांकि, केंद्र ने इस मामले को सुलझा लिया लेकिन खामियाजा दिल्ली बीजेपी को भुगतना पड़ा. विधानसभा चुनाव का नतीजा ऐसा रहा कि साल की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनाव में जहां बीजेपी दिल्ली में 52 सीटों पर आगे थी. मगर जब नवंबर में विधानसभा चुनावों के नतीजे आए तो 52 के अंक के सामने कांग्रेस का नाम लिखा था. बीजेपी महज 15 सीटों पर ही सिमट चुकी थी.
प्याज ने रुलाया वर्मा को 'विदाई' के आंसू!
खुराना के जैन हवाला कांड में नाम आने के बाद उन्हें दिल्ली के सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इसके बाद साहिब सिंह वर्मा 26 फरवरी, 1996 को दिल्ली के अगले सीएम बने. लेकिन खुराना के सीएम नहीं रहने के बावजूद भी दिल्ली के मामले में दखलअंदाजी लगातार बनी रहती थी. इसलिए इन दोनों गुटों में तकरार की नौबत हमेशा रहती थी. यहां तक कि साहिब सिंह को सीएम की कुर्सी से गिराने के प्रयास भी लगातार होते रहे.
21 अक्टूबर 1998 के अंक में छपी अपनी रिपोर्ट में संवाददाता कुमार संजय सिंह लिखते हैं, "गिनती के विधायकों के समर्थन के साथ कुर्सी पर बैठे वर्मा बीते ढाई वर्षों में पार्टी के कुल 47 विधायकों में से कम-से-कम 25 को साथ जोड़ने में सफल रहे थे. इसलिए कम-से-कम चार दफा उन्हें गिराने के गुप्त प्रयास असफल होते रहे. आरएसएस ने भी ऐसे तमाम खतरों से वर्मा की हिफाजत की थी."
साहिब सिंह वर्मा ने षड्यंत्रों से तो खुद को बचा लिया, लेकिन प्रदेश में बिजली-पानी, महंगाई जैसे मुद्दों पर वे फेल साबित हुए. उस समय तक दिल्ली में प्याज महंगाई का जबरदस्त प्रतीक बन चुका था और आम जन इन बुनियादी समस्याओं से बेहाल थे. जब प्रदेश में इन मुद्दों ने शोर मचाना शुरू किया तो बीजेपी को सख्त एक्शन लेना पड़ा और साहिब सिंह वर्मा को सीएम पद से हटा दिया गया. इसके बाद दिल्ली की पहली महिला और कुल पांचवीं सीएम सुषमा स्वराज बनीं.
इंडिया टुडे की 1998 की रिपोर्ट बताती है कि अक्टूबर की उस देर रात तक वर्मा के निवास पर करीब 20 बीजेपी विधायकों की आवाजाही होती रही और रविवार की सुबह हजारों समर्थकों ने वहां घेराव कर दिया. वर्मा भी पहले ये कहते रहे कि वे विधायकों की राय लेने के बाद ही इस्तीफा सौंपेंगे पर बाद में वे अपना इस्तीफा उपराज्यपाल को सौंप आए. समर्थकों की भीड़ के तेवर देख वर्मा कई दफा भावविह्वल होकर बेसाख्ता रो पड़े. वर्मा ने आहत भाव से कहा, "मुझे विश्वास में लिए बिना ऐसा करने की पता नहीं क्या जल्दी थी, पर मैं आलाकमान के निर्देश का पालन करूंगा."
परिवार संग डीटीसी बस पर चल पड़े घर की ओर
1998 में साहिब सिंह वर्मा ने इस्तीफा देने के तुरंत बाद अपने सरकारी आवास को खाली कर दिया था. उस समय नजारा कुछ ऐसा था कि दिल्ली के सीएम हाउस के बाहर वर्मा के गुस्साए समर्थकों की भीड़ थी. वहीं पास में ही एक डीटीसी बस खड़ी थी. नारेबाजी के बीच सीएम हाउस से वर्मा धोती-कुर्ता पहने निकले. इसके बाद उसी डीटीसी की बस में बैठकर पूरे परिवार के साथ अपने गांव मुंडका चले गये. बाद में उन्होंने केंद्र सरकार में श्रम मंत्री के रूप में काम किया.
1998 में सीएम पद से हटने के बाद 1999 में लोकसभा चुनाव जीतकर केंद्र वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में श्रम मंत्री बने. 2002 में श्रम मंत्री बनने के बाद उनके एक काम के लिए वर्मा को हमेशा याद किया जाता है. अपने कार्यकाल में उन्होंने सबके दबाव के बाद भी कर्मचारी भविष्य निधि पर ब्याज की दरों को कम करने से रोका. उनके इस काम को 'ए बुल इन चाइना शॉप' कहा गया. इसके बावजूद वह 2004 का लोकसभा चुनाव हार गये. 30 जून, 2007 वो मनहूस दिन था जब मौत ने भी उन्हें मात दे दी.
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साल 1980 में चरण सिंह की अगुआई वाली जनता पार्टी की सरकार में प्याज की कीमत पांच रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई थी. तब विपक्ष की नेता इंदिरा गांधी ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया था. लेकिन इसकी असल बानगी साल 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय देखने को मिली. पूरी स्टोरी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
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साल 1952 की बात है. देश की आजादी के 5 साल बाद 27 मार्च 1952 को देश में पहली बार लोकसभा चुनाव के साथ ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए.
इस वक्त दिल्ली में विधानसभा की 48 सीटों के लिए कांग्रेस, जनसंघ, किसान मजदूर पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा ने अपने उम्मीदवार उतारे. पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें...