जब मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद आत्मदाह की घटनाओं का सिलसिला शुरू हुआ...

अगस्त, 1990 में जब देश में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू हुई तो प्रधानमंत्री वीपी सिंह के इस फैसले के खिलाफ लोगों का उग्र आंदोलन शुरू हो गया. 160 से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की कोशिश की. जबकि 60 से अधिक लोग आत्मदाह और पुलिस की गोली से मारे गए

7 अगस्त, 1990 को वीपी सिंह ने मंडल रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया था
7 अगस्त, 1990 को वीपी सिंह ने मंडल रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया था

भारतीय राजनीति में 90 का शुरुआती दशक अपने भीतर अनगिनत कहानियां समेटे हुए है. 1989 में राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस की हार के बाद संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी और प्रधानमंत्री पद का दारोमदार वीपी सिंह ने संभाला. लेकिन महज 140 सांसदों वाली इस अल्पमत की सरकार के सामने, जिसे भाजपा और वाम मोर्चा बाहर से समर्थन दे रहे थे, शुरू से ही खुद को स्थिर बनाए रखने की चुनौती थी. 

ऊपर से देवीलाल और चंद्रशेखर जैसे बागियों के चलते सरकार में अंदरूनी कलह मांडा के "राजा" वीपी सिंह के लिए भारी दबाव का सबब साबित हुई. जैसे रामायण में देवता या असुर हार-थक कर खुद को विपरीत परिस्थितियों से बचाने के लिए 'ब्रह्मास्त्र' का सहारा लेते थे. वीपी सिंह को लगा - मंडल रिपोर्ट को लागू करना वो अचूक हथियार साबित होगा, जिससे वे एक ही बार में सारी चुनौतियों को ध्वस्त कर देंगे. 

लेकिन वीपी सिंह की कमान से ब्रह्मास्त्र के रूप में निकले इस मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने ज्वाला का ऐसा रूप अख्तियार किया कि देश के उत्तरी भागों में मानो दावानल आ गया. इसे लागू करने के विरोध में उपजे आंदोलन में कई लोगों ने खुद को आग के हवाले कर दिया. तब इंडिया टुडे मैगजीन ने काफी करीब से और विस्तृत ढंग से इस पूरी घटना को कवर किया था. आइए उन्हीं रिपोर्टों के हवाले से उस वक्त की नब्ज को टटोलने की कोशिश करते हैं. लेकिन उससे पहले मंडल कमीशन के बारे में कुछ बुनियादी बातें जान लेते हैं. 

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रहे बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (बीपी मंडल) ने मंडल कमीशन की अध्यक्षता की थी

मंडल कमीशन या दूसरा सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग को साल 1979 में भारत के 'सामाजिक या शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों' के लोगों की पहचान करने के लिये गठित किया गया था. इसकी अध्यक्षता बीपी मंडल ने की थी. साल 1980 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट पेश की और 1990 में इसे लागू कर दिया गया. कमीशन की जो एक प्रमुख सिफारिश थी वो ये कि पिछड़ा वर्ग को सरकारी क्षेत्र और सरकारी नौकरियों में 27 फीसद आरक्षण की व्यवस्था की जाए. 

7 अगस्त, 1990 को जब वीपी सिंह ने मंडल रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया तो विरोध की आग धधक उठी. 15 सितंबर, 1990 के इंडिया टुडे के अंक में संवाददाता इंद्रजीत बधवार लिखते हैं, "यह एक ऐसा फैसला है जो इतिहास के पन्नों में शायद एक शर्मनाक फैसले के रूप में दर्ज होकर रह जाएगा. यह एक ऐसा फैसला भी है जो विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी. सिंह) के एक राजनेता से एक राजनैतिक लफ्फाज बन जाने की मिसाल के रूप में याद किया जाएगा."

अब यहां कुछ स्वाभाविक सवाल उठते हैं कि आखिर क्यों अखबार या मैगजीन वीपी सिंह के बारे में इस तरह की बातें लिख रहे थे? वीपी सिंह के सामने ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी थी कि उन्हें मंडल रिपोर्ट लागू करनी ही पड़ी? इसे लागू करके वे क्या हासिल करना चाहते थे? और इसे लागू कराने में उत्प्रेरक का काम किसने किया?

बधवार लिखते हैं, "विश्वनाथ जानबूझकर नई राजनैतिक फसल के बीज बो रहे हैं, यह उस समय उजागर हो गया जब उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर को चुनावी मंच में तब्दील कर दिया. अपने भाषण में उन्होंने मंडल रिपोर्ट को लागू करने का वादा दोहराया, बाबा साहब आंबेडकर का नाम लेकर हरिजनों के नाम अपील जारी की और हजरत मुहम्मद के जन्मदिन पर सरकारी छुट्टी की घोषणा करके मुसलमानों को खुश करने की कोशिश की."

मतलब साफ है कि वीपी सिंह अपना एक नया वोट बैंक बनाना चाहते थे. इनमें मुसलमान तो शामिल थे ही, मंडल रिपोर्ट को लागू करके वे पिछड़ों को भी अपने साथ लेना चाहते थे. और इस तरह पिछड़ा, दलित और मुसलमान के गठजोड़ के जरिए वे सत्ता के शीर्ष पर अपना नाम मजबूती से अंकित कर देना चाहते थे. साथ ही देवीलाल और चंद्रशेखर के रूप में फन उठाती चुनौतियों को भी इसी दांव से चित्त कर देना भी इस मकसद का हिस्सा था. 

बधवार लिखते हैं, "मंत्रिमंडल से देवीलाल की बरखास्तगी के बाद मंत्रिमंडल की राजनैतिक मामलों की समिति (सीसीपीए) में उनकी जगह शरद यादव को लाया गया जो पिछड़ों के राष्ट्रीय नेता बनने को बेताब हैं. यादव 6 अगस्त को पहली बार सीसीपीए की बैठक में शरीक हुए और इसी में उन्होंने मंडल रिपोर्ट को तुरंत लागू करने का सुझाव पेश कर दिया. इस सुझाव का समर्थन करने वालों ने यहां तक खुलकर कहा कि इससे एक 'वोट बैंक' बनेगा. कुछ सदस्यों ने भाजपा और वामपंथी दलों से मशविरा करने का सुझाव दिया जिसे विश्वनाथ ने मान लिया. पर उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी और हरकिशन सिंह सुरजीत को सिर्फ सूचित भर किया."

यानी वीपी सिंह ने यह फैसला आनन-फानन में लिया था. हालांकि उनकी सरकार ने मंडल रिपोर्ट लागू करने का चुनावी वादा किया था. मगर एक अघोषित समझदारी थी कि इसे लागू करने से पहले राय-मशविरा किया जाएगा. इस बीच यहां एक दिलचस्प सवाल यह उठता है कि जब यह रिपोर्ट लागू हुई, उस समय कांग्रेस समेत राष्ट्रीय मोर्चा के सहयोगी दलों का इस पर क्या स्टैंड था?

इंडिया टुडे की कवर फोटो (15 सितंबर, 1990)

बधवार लिखते हैं, "करीब सभी पार्टियों - इंका (कांग्रेस), वामपंथी, भाजपा - ने सोची-समझी चुप्पी साध रखी है. जिस वोट बैंक को फुसलाने में ये पार्टियां भी लगी हैं, उसे लाभ पहुंचाने वाली किसी घोषणा का विरोध ये कैसे कर सकती हैं. लेकिन जैसे-जैसे आंदोलन तेज होता गया, वैसे-वैसे भाजपा और वामपंथी पार्टियां बेचैन होने लगीं. प. बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने विश्वनाथ को पत्र लिखकर सुझाव दिया कि आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को भी आरक्षण दिया जाए. भाजपा अध्यक्ष आडवाणी ने सवाल उठाया कि अल्पमत वाली सरकार इतना अहम फैसला अपने सहयोगियों से मशविरा किए बिना कैसे कर सकती है."

बहरहाल, इधर जैसे ही 7 अगस्त को मंडल रिपोर्ट लागू करने की घोषणा हुई. बस जैसे तूफान बरपा हो गया. उत्तर भारत के अधिकांश इलाकों में आरक्षण विरोधी आंदोलन फूट पड़ा. हालांकि आंध्र प्रदेश को छोड़ दें तो पूरे दक्षिण भारत में इसका कुछ खास असर नहीं हुआ. इस कहानी में इन आंदोलनों पर विस्तार से आगे बात की गई है. पर जब भाजपा ने कल्याणमंत्री रामविलास पासवान को आंदोलनकारी छात्रों से बातचीत करने की सलाह दी तो वे गुस्से में बोले, "यह सिर्फ यही दिखाता है कि ऊंची जातियां व्यवस्था परिवर्तन की राह में अभी भी कैसे रोड़े अटका रही हैं. हर राजनैतिक दल ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में मंडल रिपोर्ट लागू करने का वादा किया है. मगर अब वे चाहते हैं कि हम अपने कदम वापस खींचे."

बधवार लिखते हैं कि पासवान के इस तेवर से जाहिर है कि उनकी अल्पमत सरकार अपना जनाधार व्यापक करने की सोची-समझी रणनीति पर चल रही थी और वह अपने विरोधियों को उलझन में डालना चाहती थी. अब उस सवाल पर वापस लौटते हैं कि वीपी. सिंह के सामने आखिर कौन-सी मजबूरियां थीं कि उन्हें मंडल रिपोर्ट लागू करना पड़ा?

संवाददाता अपनी रिपोर्ट में इसके पीछे तीन बड़ी मजबूरियां गिनाते हैं. वे लिखते हैं, "वीपी. सिंह के सामने पहली मजबूरी यह थी कि जाट नेता देवीलाल से अलग होने के बाद विश्वनाथ का राजनैतिक समीकरण गड़बड़ा गया. अहीर, जाट, गूजर और राजपूत यानी कथित 'अजगर' का एक बड़ा पाया छिटक गया था. फिर उत्तर प्रदेश और बिहार में जनता दल की सरकारें भी मुश्किल में थीं. दूसरे, वीपी. सिंह को इंका (कांग्रेस) को बेमानी बनाने के लिए उत्तर भारत में निचले स्तर पर इकाइयां गठित करने के लिए जाति के निहित स्वार्थ वाले नए गठजोड़ की जरूरत थी. और अंतत: भाजपाई हिंदुत्ववाद के त्रिशूल को भोथरा करने के लिए भी उत्तर भारत में हिंदुओं में फूट डालना उनकी रणनीति का एक हिस्सा है."

इस रिपोर्ट में मंडल कमीशन के लागू होने पर कुछ आशंकाएं भी जाहिर की गई थीं. मसलन, आरक्षण का फायदा लिए ये युवक जब उन सरकारी विभागों में जाएंगे जहां पहले ही गैर-आरक्षित वर्गों के कर्मचारी अनुसूचित जाति या जनजाति के कर्मचारियों का मखौल उड़ाते हैं. "इस तरह एक दशक बाद भारतीय दफ्तरों में भारतीय ढर्रे का एक रंगभेद पनपने लगेगा. बाहर से ये दफ्तर समता के प्रतीक दिखेंगे पर भीतर से ये दो गैर-बराबर दुनिया में बंटे होंगे. और चूंकि तरक्की भी आरक्षित कोटे के हिसाब से होगी जिसमें कम योग्य उम्मीदवार योग्य उम्मीदवार से ऊपर पहुंच जाएंगे, सो रंजिश स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी."

रिपोर्ट में आगे लिखा है कि यह संघर्ष सिर्फ ऊंची और पिछड़ी जातियों के बीच ही नहीं होगा. जातियों के भीतर भी भयानक संघर्ष उभरने का खतरा है. पिछड़ों में भी कुछ अगड़े है जैसे यादव, कुर्मी, कोइरी जातियां जो तेली, मुरांव, धीमर, गडेरिया जैसी जातियों से बलवान हैं. इन 'अगड़े बन चुके पिछड़ों' को आरक्षण का तुरंत फायदा मिल जाएगा और 'पिछड़े रह गए पिछड़ों' की कीमत पर वे नौकरियों में अपने निहित स्वार्थ कायम कर लेंगे. 

अपनी इस रिपोर्ट के अंत में संवाददाता लिखते हैं कि "अब सवाल यह नहीं है कि वीपी. सिंह अपने इस नए वोट बैंक के सहारे चुनाव जीत सकते हैं या नहीं, कि जातीय संघर्षों की वजह से यह वोट बैंक कायम भी रहेगा या भस्मासुर बन जाएगा, कि आरक्षण का फैसला राजनैतिक चातुर्य है या नहीं. अब मुद्दा यह है कि एक अल्पमत सरकार के मुखिया ने देश में ऐसा माहौल बना दिया है जिसमें आज भारतीय ही भारतीय के खिलाफ खड़ा नजर आ रहा है."

मंडल रिपोर्ट और आरक्षण विरोधी आंदोलन 

पहले से ही चौतरफा घिरे वीपी सिंह ने मंडल रिपोर्ट को लागू करके जैसे अपने प्रतिद्वंद्वियों को सुनहरा मौका दे दिया था. देवीलाल और चिर असंतुष्ट नेता चंद्रशेखर की जोड़ी ने उनके खिलाफ मोर्चाबंदी शुरू कर दी. जनता दल के पूर्व महासचिव यशवंत सिन्हा और राष्ट्रीय मोर्चा संसदीय दल के सचिव हरमोहन धवन जैसे असंतुष्ट नेता उनका तख्ता पलटने की तैयारी कर रहे थे. विपक्ष के नेता राजीव गांधी उनसे प्राय: हर दिन इस्तीफे की मांग कर रहे थे. इधर वीपी सिंह को समर्थन देने वाली भाजपा भी इस मुद्दे पर डगमग-डगमग कर रही थी. 

लेकिन इन सब से बढ़कर मंडल रिपोर्ट के विरोध में छात्रों का उग्र आंदोलन था. वीपी सिंह के इस फैसले के विरोध में पहले राजीव गोस्वामी नाम के एक छात्र ने खुद को आग के हवाले कर दिया. गोस्वामी से शुरू हुआ ये आत्मघाती सिलसिला आगे लंबा चलता गया और 159 से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की कोशिश की. इनमें से 63 लोगों की जानें भी गईं. इंडिया टुडे के 15 अक्तूबर, 1990 के अंक में इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट छपी थी. इसकी रिपोर्टिंग पंकज पचौरी और फिलिप जॉर्ज ने की थी. जबकि पटना से फरजंद अहमद और लखनऊ से दिलीप अवस्थी ने इसमें अपना योगदान दिया था. 

इस रिपोर्ट के हवाले से संवाददाता लिखते हैं, "वीपी सिंह ने दूरदर्शन पर एक भावनात्मक अपील में कहा कि मंडल रिपोर्ट को लागू करने का फैसला वे वापस नहीं ले सकते. अगर उन्हें अपने लक्ष्य और कुर्सी के बीच चुनने का मौका आया तो वे कुर्सी छोड़ने से हिचकेंगे नहीं. उनके इस साहसिक बयान के बावजूद आंदोलन तेज होता गया. 19 सितंबर को जब दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र राजीव गोस्वामी आत्मदाह की कोशिश में 50 फीसदी जल गया तो देश स्तब्ध रह गया और आरक्षण विरोधी आंदोलन एकाएक उग्र हो उठा. राजीव ने जैसे रास्ता सुझा दिया, क्योंकि इसके तुरंत बाद आत्मदाहों का सिलसिला शुरू हो गया."

राजीव गोस्वामी की कहानी पर संवाददाता मोनिता कालरा ने अलग से एक रिपोर्ट की थी. उसमें वे लिखती हैं, "यह गुमनाम चेहरा एक ही कदम से देश में चर्चित हो उठा है. अगले दिन आत्मदाह की कोशिश करने वाले 20 वर्षीय राजीव गोस्वामी की तस्वीर अखबारों के मुखपृष्ठों पर थी. पढ़ाई में औसत, बीए के इस छात्र को यह दुस्साहसिक कदम उठाने की प्रेरणा क्यों हुई?"

वे लिखती हैं कि उसके देशबंधु कॉलेज के प्राचार्य डॉ. बीके भट्टाचार्य का मानना है कि पत्र-पत्रिकाओं और बुद्धिजीवियों द्वारा मंडल रिपोर्ट की निरंतर आलोचना ने उसे प्रेरित किया. सात बच्चों वाले मध्यमवर्गीय पंजाबी ब्राह्मण परिवार का वह अकेला बेटा है. उसके पिता मदनलाल डाक विभाग में किरानी हैं. राजीव दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की केंद्रीय परिषद् का सदस्य भी चुना गया था. 

नौ दिन के उपवास को निष्फल होते देख राजीव और उसके दोस्तों के दिमाग में आत्मदाह की बात आई. फिर भी राजीव का इरादा पक्का नहीं था. घटना से पहले की रात उसने मां से कहा था, "हम सिर्फ तमाशा करने जा रहे हैं." लेकिन नाटक की योजना धरी रह गई. पहले सिर्फ अपने पैरों पर कैरोसिन तेल छिड़ककर आए राजीव को फिर अपनी पूरी देह पर भी कैरोसिन तेल उड़ेलना पड़ा. और जब उसने माचिस की तीली जलाई तो वह भीड़ के पीछे था और उसके दोस्त, जिन्हें योजना के मुताबिक आग बुझा देनी थी, आसपास थे ही नहीं. 

मंडल रिपोर्ट लागू होने के विरोध में राजीव गोस्वामी ने खुद को आग के हवाले कर दिया था (19 सितंबर,1990)

गोस्वामी की मौत के बाद जैसे आत्मदाह का सिलसिला शुरू हो गया. संवाददाता लिखते हैं, "दिल्ली में आत्मदाह के बाद दम तोड़ने वाला छात्र सुरिंदर सिंह चौहान 98 फीसदी जल गया था. आत्मदाह से पहले लिखे पत्र में उसने "वीपी सिंह, रामविलास पासवान और शरद यादव जैसे लोगों" की निंदा की है जो "सोचते हैं कि आरक्षण के जरिए वे लोगों के वोट पा सकते हैं." कुरुक्षेत्र में एक छात्र सुशील कुमार ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली. आत्महत्या से पहले लिखे पत्र में उसने लिखा, "इन सबका जिम्मेदार तू है, वीपी तू."

आत्मदाह करने वाले लोगों में केवल छात्र लड़के ही शामिल नहीं थे. इंडिया टुडे के 31 अक्तूबर, 1990 के अंक में संवाददाता लिखते हैं कि चंडीगढ़ की 16 वर्षीया शामा गुप्ता ने एक लड़की की आत्महत्या की खबर दूरदर्शन पर सुनकर आत्मदाह कर लिया. अंतर्मुखी स्वभाव की यह लड़की मध्यमवर्गीय परिवार के चार बच्चों में दूसरे स्थान पर थी. कुछ दिनों से वह बड़े उत्सुकता से उन छात्रों के बारे में खबरें सुनती आ रही थी जिन्हें अच्छे नंबरों के बावजूद आरक्षण की वजह से नौकरी नहीं मिली. शामा ने आत्महत्या से पहले चिट्ठी में लिखा, "वीपी. सिंह देखो! लड़के ही नहीं, अब लड़कियां भी कुरबानी दे रही हैं."

ऐसे ही दक्षिणी दिल्ली की एक लड़की मोनिका चड्ढा ने भी माहौल के असर से खुद को आग लगा ली. संवाददाता लिखते हैं, "इतवार की एक सुबह 19 वर्षीया मोनिका चड्ढा अपने घर में मां और पांच बहनों के साथ वीडियो देख रही थी. अचानक वह उठकर छत पर गई और खुद को आग लगा ली. 12वीं कक्षा की इस छात्रा पर होशियारपुर की एक लड़की के आत्मदाह ने बहुत असर डाला था. 90 फीसदी जल चुकी मोनिका जिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए भी अपनी मौसी से कहती है, "आप भी बोलो न, वीपी सिंह हाय, हाय." 

इसी रिपोर्ट में जिक्र है कि सरकार को उसकी गलतियों का एहसास कराने का भाव इतना जबरदस्त है कि 13 वर्षीय चेतन गौतम ने भी आत्मदाह कर लिया. संवाददाता लिखते हैं कि क्या वह सरकार की जिद से उपजने वाला असर समझने के काबिल था? या क्या उसने अपने परिजनों और स्कूल के सहपाठियों की निराशा से अभिभूत होकर ही यह कदम उठाया? या क्या यह सिर्फ किशोरावस्था में शरीर में होने वाले हारमोनों की विशेष रासायनिक क्रियाओं का ही प्रतिफल था? 

इस रिपोर्ट में संवाददाताओं ने किशोरों और युवाओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के बारे में जानने के लिए मनोचिकित्सकों से भी बात की थी. वे लिखते हैं कि युवाओं के लिए शायद एक और महत्वपूर्ण बात उत्प्रेरक का काम कर रही है और वह है आत्मदाह की हर कोशिश का अखबारों में प्रमुखता से छापा जाना. एम्स दिल्ली के मनोचिकित्सा विभाग के प्रमुख डॉ. डी मोहन कहते हैं, "वैसे अनजान रहने वाले लोग अखबारों में जगह पाने लगे हैं. अस्वाभाविक स्थितियों में आपको जितना प्रचार मिलता है, वह पीड़ा हर लेता है. वह मृत्यु का भय या बुद्धिसम्मत सोच पर भी हावी हो जाता है." 

इंदौर के मनोचिकित्सक जे डब्ल्यू सभाणे का मानना था कि, "जनसमूह के सामने अपने को जलाना दरअसल ध्यान खींचने का प्रयास ही है. जबकि जीवन के दूसरे क्षेत्रों - स्कूल, कॉलेज और समाज में आप ध्यान आकर्षित नहीं कर पाते."

संवाददाता लिखते हैं, "उनकी (मनोचिकित्सकों की) बात में अतिशयोक्ति भी लगभग नहीं है. आत्महत्या के प्रयास के दूसरे दिन 19 वर्षीया मोनिका चड्ढा ने अपनी मां से पहला सवाल किया, "क्या मेरी तस्वीर अखबारों में छपी है?" हालांकि संभव है कि मोनिका चड्ढा का मामला अपवाद हो. इंडिया टुडे ने चंडीगढ़ में जिन छह लोगों से बात की, उनमें से चार ने दूरदर्शन पर दूसरे लोगों की आत्महत्या की कोशिशों को सुन-देखकर आत्महत्या की कोशिश की. मसलन, 15 वर्षीया सरोज सैनी ने टीवी पर राजीव गोस्वामी के आत्मदाह की खबर सुनकर नेफ्थलिन की गोलियां खा ली. उसने अपने परिजनों से कहा, "मैं ऐसा करने वाली पहली लड़की होना चाहती हूं."  

मंडल कमीशन के विरोध स्वरूप छात्रों के आत्महत्याओं के अलावा देश के कई हिस्सों में आंदोलनकारी उग्र प्रदर्शन कर रहे थे. रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है, "चंडीगढ़ में आंदोलनकारियों ने सैकड़ों सरकारी वाहनों, भवनों और दफ्तरों को फूंक डाला. आखिर में सेना बुलानी पड़ी. चंडीगढ़ के अलावा दर्जन भर दूसरे शहरों - अंबाला और सिरसा, कुरुक्षेत्र और रोहतक में भी सेना बुलानी पड़ी. ग्वालियर में कर्फ्यू लगाना पड़ा. इस तरह आरक्षण विरोधियों ने वीपी सिंह को साफ संदेश दिया कि आरक्षण को लेकर उनमें कितना रोष है."

मंडल रिपोर्ट के विरोध में प्रदर्शन करते हिंदू कॉलेज के छात्र

यहां एक सवाल उठता है कि इस तरह की घटनाएं और इन चुनौतियों के बीच खुद वीपी सिंह क्या सोच रहे थे. संवाददाता लिखते हैं, "शुरू में वीपी सिंह टस से मस नहीं हुए तो इसकी वजह उनकी यह मान्यता थी कि आरक्षण विरोधियों के मुकाबले आरक्षण समर्थकों की संख्या ज्यादा है. और जरूरत पड़ने पर पिछड़ों को सड़क पर उतारा जा सकता है. दूसरा तर्क यह भी था कि छात्रों का छोटा तबका ही आंदोलन के पीछे है."

वे आगे लिखते हैं कि वीपी सिंह की इन मान्यताओं के पीछे कुछ ठोस आधार भी थे. एक तो यह कि मंडल रिपोर्ट पूरे दक्षिण भारत में कोई मुद्दा नहीं बन पाया है. मद्रास में 16 सितंबर को वीपी सिंह के समर्थन में आयोजित द्रमुक की रैली से यह साबित हो गया कि पार्टी यहां की जनता के बड़े हिस्से को अपने साथ लेकर चल सकती है. बिहार में आरक्षण समर्थक सड़कों पर निकल आए और उन्होंने विरोधियों को फीका कर दिया. गुजरात में मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल ने आरक्षण विरोधियों के एक बड़े वर्ग को यह आश्वासन देकर मना लिया कि वे राज्य में मंडल रिपोर्ट को लागू नहीं करेंगे. पंजाब में यह आंदोलन अपेक्षाकृत धीमा रहा. कई गुरुद्वारों में ग्रंथियों ने अरदास करने आए लोगों से अनुरोध किया कि वे आरक्षण विरोधी तत्वों को समर्थन न दें. 

मंडल रिपोर्ट पर छात्रों के आंदोलन पर संवाददाता लिखते हैं, "यह आंदोलन छात्रों को राजनीति का सबक सिखाने वाला भी साबित हुआ है. वे जल्द ही भांप गए कि राजनैतिक पार्टियां किस तरह उनका शोषण करने की कोशिश करती हैं." इसे समझाते हुए वे बताते हैं कि दिल्ली में जब भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी और सांसद मदनलाल खुराना राजीव गोस्वामी के माता-पिता से मिलने सफदरजंग अस्पताल गए तो छात्रों ने उनका घेराव किया. 

उन्होंने आडवाणी से मंडल आयोग की सिफारिशों की आलोचना करने को कहा. मगर वे ऐसा कैसे कर सकते थे, क्योंकि उनकी पार्टी का चुनाव घोषणापत्र मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने को प्रतिबद्ध था. सो, उन्होंने कहा कि वे पुलिस अत्याचारों के खिलाफ हैं. गोस्वामी के आत्मदाह के बाद आंदोलनकारी छात्रों ने राजधानी के एक प्रमुख चौराहे पर कब्जा करके उसका नाम 'कुरबानी चौक' रख दिया. इसी चौक पर कब्जे को लेकर छात्रों और पुलिस के बीच जमकर मुठभेड़ हुई थी. पुलिस की गोली से एक छात्र बुरी तरह जख्मी हो गया था. 

इस आंदोलन की आंच पर रोटी सेंकने वालों में कांग्रेस भी कम नहीं थी. संवाददाता लिखते हैं, "कांग्रेस ने मंडल रिपोर्ट की खुली आलोचना तो नहीं की लेकिन दल के सांसद एसएस. अहलूवालिया और वरिष्ठ नेता सुभाष चोपड़ा दिल्ली के आंदोलनकारियों से खुलकर जुड़े रहे और बिहार में तो ऊंची जाति के एक कांग्रेस विधायक आदित्य नारायण ने यादवों के खिलाफ एक हिंसक रैली की अगुआई की." 

नोट - इंडिया टुडे के 15 सितंबर के अंक में छपी रिपोर्ट में संवाददाता इंद्रजीत बधवार के अलावा पंकज पचौरी, हरपाल सिंह, फरजंद अहमद और दिलीप अवस्थी ने योगदान दिया था. वहीं 31 अक्तूबर के अंक में संवाददाता हरिंदर बवेजा के अलावा नरेंद्र कुमार सिंह के अलावा कंवर संधू ने सहयोग किया था.

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