सफ़दर हाशमी : 'पढ़ना-लिखना सीखो' लिखने वाले की हत्या के खिलाफ जब पूरे देश के कलाकार हुए थे एकजुट
सफ़दर हाशमी की हत्या को 35 साल बीत चुके हैं मगर आज भी उनके द्वारा लगाई गई प्रतिरोध की आग देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों के स्टूडेंट्स और 'पढ़ने-लिखने वालों' को रोशनी दिखा रही है

तारीख थी 1 जनवरी, 1989. गाजियाबाद के झंडापुर में 34 साल के सफ़दर नुक्कड़ नाटक कर रहे थे जिसका नाम था 'हल्ला बोल'. नाटक के बीच ही अचानक शोर-शराबा होने लगा और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की एक भीड़ ने वहां लोगों पर हमला कर दिया. सफ़दर उस हमले में 6 लोगों की जान बचाने के बाद भी खुद को नहीं बचा सके.
लोहे की रॉड से पीट-पीटकर उन्हें मरणासन्न कर दिया गया था. अगले दिन, 2 जनवरी 1989 को उन्होंने अस्पताल में दम तोड़ दिया. इस हत्या ने पूरे देश के कलाकारों में एक तरह का डर पैदा कर दिया था. सफ़दर की हत्या सिर्फ एक हत्या नहीं, सरकारी तंत्र के खिलाफ प्रदर्शन में शहीद होने का एक प्रतीक बनकर उभरी.
दिल्ली के सेंट स्टीफेंस से पढ़े इस वामपंथी नाटककार की हत्या के तीन महीने बाद सीपीआई (एम) ने सफ़दर हाशमी समारोह आयोजित किया जिसमें देशभर में करीब 25000 नुक्कड़ नाटक आयोजित किए गए. मई में आयोजित हुए इस समारोह में देशभर के कलाकारों ने हिस्सा लिया. इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन के मई, 1989 के अंक में इस समारोह के बारे में सिमरन भार्गव ने विस्तार से लिखा. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा, "इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सारा समारोह पार्टी की सांगठनिक ताकत की वजह से ही संभव हो पाया. हाशमी ने अपने व्यक्तित्व की वजह से भी चमत्कारी हैसियत पाई. वे एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता थे. सरकारी नौकरी छोड़कर वे पूर्णकालिक रंगकर्मी बन गए थे. दो बार पहले भी उन पर हमला हो चुका था. एमएफ हुसैन भी समारोह में आए और उन्होंने सफदर की मौत से पहले बनाई एक कलाकृति उन्हें समर्पित की."
पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों
पढ़ना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालों
क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढ़ना सीखो
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो
ये पंक्तियां सफ़दर हाशमी की उस कविता की हैं जो बहुत साल पहले दूरदर्शन पर प्रसारित होती थीं. अपनी मजबूत अकादमिक पृष्ठभूमि की वजह से सफ़दर हाशमी ने प्रतिरोध के साहित्य को भी काफी समृद्ध किया. उनके लिखे नाटक पर आज भी आपको किसी विश्वविद्यालय के स्टूडेंट्स परफॉर्म करते हुए नजर आ जाएंगे. 'हल्ला बोल' तो ऐसा नाटक था जिसका शीर्षक आगे चलकर उनकी जीवनी का भी शीर्षक बना. उनकी हत्या के कुछ महीनों बाद हुए समारोह में प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख्तर ने कहा था, "लोग यहां इसलिए नहीं आए कि ऐसा पहली बार हुआ है. बल्कि ऐसी हत्याएं अक्सर होती रहती हैं. अब पानी सिर से गुजर चुका है. अब हमें बोलना ही होगा".
इंडिया टुडे के लिए अपनी रिपोर्ट में सिमरन भार्गव ने लिखा था, "सफ़दर हाशमी की मौत के कुछ घंटों के बाद उनकी पत्नी मोलॉयश्री उनकी किडनी और आंखें लेने के लिए डॉक्टरों से गुहार लगा रही थी: यह एक वादा था जो सफदर ने अपनी पत्नी के साथ बहुत पहले किया था".
मौत की रात का जिक्र करते हुए सिमरन ने अपनी रिपोर्ट की शुरुआत में ही लिखा था, "जिस रात खबर आई कि सफदर हाशमी दिल्ली के एक अस्पताल में मरने की हालत में हैं, उनके कई दोस्त वहां पहुंचे. एक अजीब सी अलग तरह की भीड़ जमा होने लगी थी अस्पताल के बाहर और उनके साथ बाहर जमा थी हताशा, गुस्सा और निराशा भी".
सफ़दर हाशमी की हत्या को 35 साल बीत चुके हैं मगर आज भी उनके द्वारा लगाई गई प्रतिरोध की आग देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों के स्टूडेंट्स और 'पढ़ने-लिखने वालों' को रोशनी दिखा रही है. 1973 में उनके द्वारा स्थापित जन नाट्य मंच आज भी क्रान्तिकारी नाटकों को मंच देता है. गाजियाबाद के जिस आंबेडकर पार्क में सफ़दर की हत्या हुई थी, वहां हर साल 2 जनवरी को उनकी याद में लोग जमा होते हैं, कविताएं पढ़ते हैं और सफ़दर को याद करते हैं. सफ़दर चाहते तो आज किसी सरकारी बंगले में बैठकर अपने जीवन का सत्तरवां साल बिता रहे होते, मगर उन्होंने चुना बोलना और सताए हुए लोगों के हक के लिए आवाज उठाना. शायद यही सफ़दर होना है.