लोकसभा चुनाव 1989: जब भाजपा और वामदल वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए साथ आए

राजीव गांधी की सरकार में वित्त और रक्षा मंत्रालय संभालने वाले वीपी सिंह आखिर उनके खिलाफ क्यों हो गए थे

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते वीपी सिंह, 2 दिसंबर 1989
प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते वीपी सिंह, 2 दिसंबर 1989

आपातकाल के बाद वह भारतीय राजनीति की सबसे उथल-पुथल भरे दौर की शुरुआत थी. अस्सी का दशक जाते-जाते नब्बे के दशक को आमंत्रित कर रहा था. देश में एक तरफ कंप्यूटर, टेलीकॉम जैसे क्षेत्रों में राजीव गांधी सरकार के महत्वपूर्ण सुधारों पर बात हो रही थी तो दूसरी तरफ बोफोर्स, काला धन जैसे भ्रष्टाचार के छींटे उनके दामन को दागदार कर रहे थे.

राजीव गांधी की नाक में दम करने का बीड़ा उन्हीं विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उठाया था जो कभी उनकी कैबिनेट में वित्त और रक्षा जैसे बड़े मंत्रालय संभाल चुके थे. वे राजीव के खास दोस्तों में हुआ करते थे. तो फिर ये दोस्ती विरोध में कैसे बदली, कैसे वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने और उन्हें समर्थन देने के लिए विचारधारा के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी पार्टियां तैयार हो गईं?

31 अक्तूबर, 1984 को जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो कांग्रेस की तरफ से उनके छोटे बेटे राजीव को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया गया. आठवीं लोकसभा के लिए दिसंबर, 1984 में पहले चरण के लिए चुनाव होने थे. इस चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत के साथ जीत दर्ज की. राजीव गांधी की अगुवाई में पार्टी को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में उठी सहानुभूति की लहर का अभूतपूर्व फायदा मिला. उसे 514 में से 404 सीटों पर जीत मिली. पंजाब और असम में अव्यवस्था के चलते चुनाव नहीं हो पाए थे. सितंबर 1985 में पंजाब और दिसंबर 1985 में असम में लोकसभा चुनाव हुए. यहां भी कांग्रेस ने 10 सीटें जीतीं.

महज 40 साल की उम्र में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. उनके मंत्रिमंडल में विश्वनाथ प्रताप सिंह यानी वीपी सिंह को केंद्रीय वित्त मंत्री का प्रभार मिला. इस बीच युवा राजीव की सरकार देश में सुधारात्मक उपायों पर ध्यान दे रही थी. 52वें संविधान संशोधन के जरिए 1985 में दल-बदल कानून की व्यवस्था की गई ताकि विधायकों या सांसदों के मनमर्जी से पार्टी बदलने पर रोक लगाई जा सके. इसी कड़ी में 61वें संविधान संशोधन का जिक्र किया जा सकता है जब कानून बनाकर वोटिंग की तय उम्र सीमा 21 से घटाकर 18 की गई.

इन चुनावी सुधारों के अलावा राजीव सरकार विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र को भी बढ़ावा दे रही थी. कंप्यूटर को लेकर जो कड़े सरकारी नियम थे उनमें काफी ढील दी गई. हर घर कंप्यूटर पहुंचाने के लिए राजीव गांधी ने कंप्यूटर से सरकार का कंट्रोल हटा दिया. इसके बाद पूरी तरह से एसेंबल किए गए कंप्यूटर का इम्पोर्ट देश में शुरू हो गया. ये एक बड़ा कारण बना जिससे कंप्यूटर का दाम कम होने लगा और आम लोगों की पहुंच में ये आने लगा. राजीव गांधी के वक्त ही नेशनल इन्फॉर्मेटिक्स सेंटर की स्थापना हुई. MTNL और VSNL की शुरुआत भी उनके कार्यकाल में हुई.

राजीव गांधी के साथ वीपी सिंह, 1989

बहरहाल, इन तमाम चीजों के साथ-साथ और भी बहुत-सी चीजें चल रही थीं जो राजीव के लिए समस्या बन रही थीं. सबसे बड़े सिरदर्द तो उनके वित्त मंत्री वीपी सिंह ही थे. एक वित्त मंत्री के बतौर सिंह देश के तमाम व्यावसायिक घरानों पर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के तहत लगातार छापे मरवा रहे थे. इनमें से कई व्यवसायी राजीव के खास दोस्त थे.

15 फरवरी, 1987 को इंडिया टुडे में छपी रिपोर्ट में संवाददाता प्रभु चावला ने लिखा, "क्या अंबानी, बिड़ला, किर्लोस्कर, टाटा, थापर, मोदी, बंगुर और गोयनका हों, इन सभी प्रमुख व्यापारिक घरानों पर या तो छापा मारा गया या उनके वित्तीय और व्यापारिक सौदों पर पूछताछ की जा रही थी. इनमें से कुछ प्रमुख व्यापारियों को गिरफ्तार भी किया गया. दशकों में ऐसा पहली बार था जब देश के सबसे प्रसिद्ध उद्योगपति ललित थापर और एसएल किर्लोस्कर आर्थिक अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किये गये. और कई ऐसे मामलों में, जिनमें व्यापारियों ने अपनी बेगुनाही का जोरदार विरोध किया था, वे या तो माफी मांगने के लिए मजबूर हुए या फिर उन्होंने टैक्स का भुगतान किया." 

वे आगे लिखते हैं कि वित्त मंत्रालय का प्रदर्शन पहले इतना अच्छा कभी नहीं रहा. विभिन्न राजस्व-संग्रह एजेंसियों ने करीब 500 करोड़ रुपये (उस समय) की कर चोरी का पता लगाया. करीब 5000 से अधिक परिसरों पर छापेमारी की गई और 300 से अधिक व्यापारिक घरानों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू हुई. बहरहाल,  मामला बढ़ता जा रहा था. थापर की गिरफ्तारी के बाद तूफान और तेज हो गया. उस समय फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष आर.पी. गोयनका ने वीपी सिंह आरोप लगाते हुए कहा कि उनके काल में "छापा राज" (रेड राज) की शुरुआत हुई है.

जब "रेड राज", "रेड राज" की चिल्लपों लगातार बढ़ती गई तो राजीव ने वीपी सिंह से वित्त मंत्रालय का प्रभार लेकर उन्हें रक्षा मंत्री बना दिया. राजीव ने सोचा होगा - बला टली. लेकिन सिंह ने जब अपना नया कार्यभार शुरू किया तो वे राजीव के लिए और मुसीबत लेकर आए. उन्होंने चर्चित बोफोर्स घोटाला मामले में जांच का एलान कर दिया. अब यहां आगे बढ़ने से पहले इस मामले के बारे में थोड़ा जान लेते हैं.

दरअसल, 1986 में हथियार बनाने वाली स्वीडन की कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को 155mm की 400 तोपें सप्लाई करने का सौदा किया था. यह डील 1437 करोड़ रुपये की थी. लेकिन 1987 में स्वीडिश रेडियो ने खुलासा किया कि यह डील हासिल करने के लिए भारत में 64 करोड़ रुपए दलाली दी गई. रेडियो के मुताबिक बोफोर्स कंपनी ने यह सौदा हासिल करने के लिए भारत के बड़े राजनेताओं और सेना के अधिकारियों को रिश्वत दी थी. 

इस मामले पर इंडिया टुडे के 15 मई, 1987 के अंक में संवाददाता दिलीप बॉब ने लिखा, "आशंका के बादलों से घिरे पखवाड़े को बोफोर्स तोप के धमाके ने और झकझोर कर रख डाला. सरकार पर लगाए गए आरोप उसके लिए नींद में बारूदी सुरंगों के इलाके में चलने जैसे थे. बोफोर्स का यह धमाका वास्तव में इस तथ्य की कठोर अनुभूति था कि यह देश नई बोतलों की पुरानी शराब के नशे में धुत है और यह भी कि एक जनादेश खतरे में पड़ चुका है."

इंडिया टुडे के इसी अंक में लंदन से संवाददाता रमेश चंद्रन लिखते हैं, "जिस संवाददाता (स्वीडिश रेडियो के) ने बोफोर्स कांड पर से पर्दा उठाया वह रेडियो का पूर्णकालिक कर्मचारी नहीं था. पर्यावरण से जुड़े मसलों पर खबरें इकट्ठा करने वाले इस 32 वर्षीय मैगनल निल्सन को स्वीडन के हथियार ईरान पहुंचने का मामला उजागर होने के बाद बोफोर्स के जांच दल में तैनात किया गया था." बहरहाल, अब वापस कहानी पर आते हैं. 

मंच से भाषण देते वीपी सिंह, 1990

वीपी सिंह ने जब बोफोर्स मामले में जांच की घोषणा की तो यह राजीव के लिए असहज करने वाला था क्योंकि बोफोर्स सौदे के वक्त रक्षा मंत्रालय राजीव ही संभाल रहे थे. इस असहजता की परिणति वीपी सिंह के इस्तीफे के साथ हुई. 12 अप्रैल, 1987 को सिंह ने रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस को भी अलविदा कह दिया. इंडिया टुडे के 30 अप्रैल, 1987 के अंक में प्रभु चावला लिखते हैं, "हालांकि यह चार मिनट की छोटी ड्राइव थी, लेकिन इसने तत्काल इतिहास बना दिया. शनिवार, 11 अप्रैल की रात को रात्रिभोज से घर लौटने के तुरंत बाद, रक्षा मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने बेटे अभय से उन्हें प्रधानमंत्री आवास तक ले जाने के लिए कहा."

वे आगे लिखते हैं, "सिंह ने तय किया था कि उनके साथ कोई सिक्योरिटी गार्ड या एंबेसडर साथ नहीं जाएगा. अभय जो एमडी की परीक्षा की छुट्टी लेकर आए थे, पिता को सफेद मारुती कार में बिठा कर उसे चलाते हुए दो किलोमीटर तक ले गए. बेटे को पहले से ही पता था कि उसके पिता के उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक करियर पर ग्रहण लगने वाला है. क्योंकि सिंह अपने साथ सीलबंद सफेद लिफाफे में हस्तलिखित दो पन्नों का त्यागपत्र लेकर आए थे, जिस पर केवल 'प्रधानमंत्री' लिखा हुआ था." अब इन दोनों के बीच तलवारें खींच चुकी थीं. 

02 अक्तूबर, 1987 को सिंह ने जनमोर्चा की स्थापना की. यह एक राजनैतिक मंच था. इसके साथ जो लोग जुड़े उनमें अरुण नेहरू, आरिफ मोहम्मद खान जैसे लोग थे. अरुण, राजीव गांधी के भतीजे थे और एक समय में वे उनके काफी करीबी सलाहकार हुआ करते थे. वहीं आरिफ मोहम्मद पहले राजीव सरकार के मंत्रिमंडल में ही थे लेकिन जब 1986 में शाहबानो मामला हुआ तो उन्होंने कैबिनेट छोड़ दिया था. इस बीच सिंह राजीव सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे. इन दोनों के बीच जंग तब अखबारों और मैगजीन की सुर्खियों में छाई रहती थी. 

जून 1988. बोफोर्स तोप सौदे को लेकर घोटाले में नाम उछलने से आहत होकर सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने इलाहाबाद लोकसभा सीट (वर्तमान में प्रयागराज) से इस्तीफा दे दिया, और इसलिए यहां उपचुनाव हो रहा था. वीपी सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर यहां से पर्चा भरा. उन्हें विपक्ष का समर्थन मिला और उन्होंने जीत हासिल की. इसके बाद सिंह ने उन तमाम पार्टियों को साथ में लाने के प्रयास शुरू किए जो 1977 में जनता पार्टी की घटक हुआ करती थीं. 

11 अक्तूबर 1988 को (जयप्रकाश नारायण की जयंती पर) सिंह ने जनता दल का गठन किया. इसमें जनमोर्चा तो शामिल थी ही, लोक दल और जनता पार्टी के कई अन्य धड़े भी इसमें शामिल हुए. विपक्ष ने अपना नारा बुलंद किया - "राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है". वीपी सिंह मांडा राजशाही घराने से आते थे इसलिए उन्हें लोग प्यार से "राजा" कहते थे. जनता दल की छत्रछाया में सिंह ने राजीव सरकार के खिलाफ धुआंधार प्रचार करना शुरू कर दिया. 

1990 के दशक का समय राजनीति का ऐसा दौर है जब मौजूदा समय में सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की राजनीति भी आकार ले रही थी. लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में और विश्व हिंदू परिषद् और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से भाजपा उग्र हिंदुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़ रही थी. इन सब के बीच 1989 में होने वाले नौंवे लोकसभा चुनाव का कारवां नजदीक आ पहुंचा. 

इस चुनाव में करीब 49.89 करोड़ मतदाता हिस्सा ले रहे थे. इनमें 18 से 20 साल के वे युवा भी पहली बार वोट करने के लिए तैयार थे जिनकी उम्र 61वें संविधान संशोधन के तहत वोटिंग के लिए तय उम्र सीमा 21 से घटाकर 18 कर दी गई थी. 22 से 26 नवम्बर, 1989 के बीच तीन चरणों में चुनाव संपन्न हुआ. 529 सीटों के लिए हुए मतदान में 62 फीसदी वोटिंग हुई. असम को छोड़कर सभी जगह वोट डाले गए क्योंकि वहां अव्यवस्था फैली हुई थी. 

इस चुनाव में जनता दल को 143 सीटें मिलीं. इनमें 54 उत्तर प्रदेश से तो 32 बिहार से सीटें मिलीं. भाजपा को इस चुनाव में 85 सीटें हासिल हुईं. यह उसके पिछले चुनाव परिणाम से कई गुना ज्यादा था क्योंकि 1984 के लोकसभा चुनावों में उसे महज दो ही सीटें मिली थी. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) ने 33 सीटें जीतीं तो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) को 12 सीटें मिली थीं. कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को इस चुनाव में तीन सीटें मिली. और मायावती, जो उस समय 33 साल की थीं, चुनाव में जीत हासिल कर पहली बार संसद भवन पहुंचीं.

देवीलाल, (वीपी सिंह की सरकार में उप प्रधानमंत्री रहे)

1984 में रिकॉर्ड 414 सीटें जीतने वाली कांग्रेस को भारी नुकसान झेलना पड़ा. हालांकि फिर भी वो सबसे बड़ी एकल पार्टी थी. उसे 197 सीटें मिलीं. आंध्र प्रदेश में उसने 39 सीटें जीती. महाराष्ट्र में 28, कर्नाटक और तमिलनाडु में 27-27 और केरल में उसे 14 सीटें हासिल हुईं. राजीव गांधी को सरकार बनाने का न्योता मिला लेकिन उन्होंने इससे इनकार कर दिया. इसके बाद जनता दल के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार अस्तित्व में आई. सिंह ने 2 दिसंबर, 1989 को भारत के आठवें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री रहे देवीलाल उप प्रधानमंत्री बने.

वीपी सिंह की इस राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार को भाजपा और भाकपा (एम) के नेतृत्व में वाम मोर्चा, दोनों ने बाहरी समर्थन दिया था. भारतीय राजनीति में इसे दुर्लभ मौकों में से एक माना जाता है जब विचारधारा के विपरीत किनारों पर खड़ी पार्टियां सहयोग के लिए एक साथ आईं. तब भाकपा (एम) के नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु, सीपीआई के इंद्रजीत गुप्ता और भाजपा के आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी हर मंगलवार को प्रधानमंत्री आवास पर मिलते, रात्रि भोज करते और सरकार के शासन-प्रशासन पर चर्चा करते. 

लेकिन राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के साथ भी वही समस्याएं थीं जो दस-बारह साल पहले बनीं जनता पार्टी के साथ थी. सामंजस्य का अभाव, संघर्ष पैदा करने वाली महत्वाकांक्षाएं और आंतरिक कमजोरी ये कुछ ऐसे मसले थें जिनसे वीपी सिंह की सरकार को भी जूझना पड़ा. उप प्रधानमंत्री देवी लाल और वीपी सिंह के बीच खटपट की खबरें भी सामने आईं जब देवी लाल ने उन्हें एक साक्षात्कार में "बिना रीढ़ की हड्डी वाला" कह डाला. नतीजा यह हुआ कि सिंह ने उन्हें 1 अगस्त, 1990 को पद से बर्खास्त कर दिया. 

इंडिया टुडे के 31 अगस्त, 1990 के अंक में इंदरजीत बधवार और प्रभु चावला ने लिखा, "पिछले पखवाड़े जब देवीलाल ने वीपी सिंह को एक जाली पत्र भेजा तो ऐसा लग रहा था कि ऐसा करना खतरनाक हो सकता है. उन्होंने अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खान पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया और बाद में एक पत्रिका साक्षात्कार में सिंह को 'रीढ़विहीन' बताया. विस्फोटक परिणाम में जब सिंह ने अंततः जाट सरदार को बर्खास्त कर दिया, तो इस बहुभाषी सत्तारूढ़ पार्टी में गहरा विभाजन फिर से उजागर हो गया और 1977 के असफल जनता पार्टी प्रयोग के साथ एक उल्लेखनीय समानता उजागर हुई."

15 अगस्त, 1990 को वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला किया. इस रिपोर्ट में सरकारी नौकरियों में पिछड़ा वर्ग को 27 फीसद आरक्षण की सिफारिश की गई थी. इस घोषणा के बाद देश भर में विरोध प्रदर्शन होने शुरू हो गए. छात्रों और सवर्ण जातियों जिनमें जाट समुदाय भी शामिल था, ने इसका खुलकर विरोध किया. इस बीच आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा भी जारी थी. 23 अक्तूबर, 1990 को जैसे ही यह यात्रा बिहार के समस्तीपुर पहुंची, जनता दल सरकार में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने इसे वहीं रोक दिया. उन्होंने आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया. 

'युवा तुर्क' चंद्रशेखर, 1989

इस नाटकीय घटनाक्रम में आगे यह हुआ कि भाजपा ने केंद्रीय सरकार को दिए समर्थन को वापस खींच लिया. इधर देवीलाल और चंद्रशेखर भी उन्हें लगातार चुनौती पेश कर रहे थे. वीपी सिंह की सरकार को अब सदन में बहुमत साबित करने की नौबत आ गई. 7 नवंबर, 1990 को विश्वास प्रस्ताव के लिए वोटिंग हुई जिसमें सिंह को हार का मुंह देखना पड़ा. और इस तरह वीपी सिंह को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. 

इंडिया टुडे के 15 नवंबर, 1990 के अंक में इंदरजीत बधवार लिखते हैं, "शुरू में वीपी सिंह भाजपा और लेफ्ट के बीच विरोधाभासों का निपटारा करने में सक्षम थे. लेकिन वे देवीलाल और चन्द्रशेखर द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों से निपटने में असमर्थ रहे. एक के बाद एक समझौते करने की प्रक्रिया में, सिंह ने पाया कि वे अपनी ही पार्टी की विभागीय राजनीति के दलदल में बुरी तरह फंस गए हैं और उनसे ऊपर उठने में असमर्थ हैं. ऐसा लग रहा था कि सिंह के दिमाग में देवीलाल और हरियाणा देश के बाकी हिस्सों की तुलना में बड़ा हो गया है."

बहरहाल, अब कहानी को यहीं खत्म किया जा सकता है लेकिन इसके बाद के घटनाक्रम भी कम दिलचस्प नहीं हैं. वीपी सिंह के इस्तीफे के बाद अगली सरकार बनाने के लिए जनता दल के 64 सांसद इकट्ठा हुए और उन्होंने एक नया गुट बनाया. इसका नाम पड़ा - जनता दल (सोशलिस्ट). इसकी अगुवाई चंद्रशेखर कर रहे थे, जिन्हें 'युवा तुर्क' कहा जाता था. राजनीति में 'युवा तुर्क' से मतलब एक ऐसे आदमी या लोगों के एक ऐसे समूह से है, जिसकी सोच क्रांतिकारी और प्रगतिशील हो, जो कुछ नया करे या जिसके पास कुछ नया करने का आइडिया हो. किसी विचार, पार्टी या समाज से बगावत करने वालों को भी 'युवा तुर्क' कहा जाता है. खैर, चंद्रशेखर ने 10 नवंबर, 1990 को भारत के नौंवे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली.

लेकिन जिस तरह कांग्रेस ने जुलाई 1979 में चौधरी चरण सिंह को अपना समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनाया था, और बाद में समर्थन वापस ले लिया था. ठीक उसी तरह इस कहानी का भी पटाक्षेप हुआ. इस बार भी कांग्रेस ने चंद्रशेखर को बाहर से समर्थन दिया था. लेकिन जल्द ही कुछ ऐसा हुआ कि कांग्रेस ने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पर राजीव गांधी की जासूसी करवाने का आरोप लगाना शुरू कर दिया. चंद्रशेखर को इस बात का इल्हाम हो गया कि कांग्रेस का समर्थन जल्द ही खिसकने वाला है. 

चंद्रशेखर को बतौर प्रधानमंत्री शपथ लिए महज तीन महीने बीते थे कि कांग्रेस ने उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया. अल्पमत में आने के बाद चंद्रशेखर को 6 मार्च 1991 को इस्तीफा देना पड़ा. और लोकसभा भंग कर दी गई.

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