राजनीति में 20 साल गुजारने के बाद कितना बदले राहुल गांधी?

कांग्रेस नेता राहुल गांधी पहले से अपनी मां सोनिया गांधी की राजनीतिक मदद कर रहे थे लेकिन राजनीति में उनका औपचारिक पदार्पण साल 2004 में हुआ

बीते बीस सालों में राहुल गांधी भारतीय राजनीति की एक धूरी बनकर उभरे हैं
बीते बीस सालों में राहुल गांधी भारतीय राजनीति की एक धूरी बनकर उभरे हैं

साल था 2004. कांग्रेस इसी साल हो रहे लोकसभा चुनावों के लिए तैयार तो थी मगर भारतीय राजनीति में उसी साल जो 2 बड़े बदलाव होने थे, उनके लिए कितना तैयार थी, पता नहीं. पहला बड़ा बदलाव यह था कि पूरा देश बैलट पेपर के इतिहास को छोड़ ईवीएम के रास्ते जाने वाला था और दूसरा था भारतीय राजनीति में नेहरू-गांधी परिवार के एक और वारिस - राहुल गांधी का आगमन. 

राहुल गांधी को राजनीति में आए 20 साल हो गए हैं. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि तब और अब के राहुल गांधी के बारे में जनता की धारणा में कितना बदलाव आया है. जब 2004 में राहुल गांधी की राजनीति में एंट्री हुई थी, इंडिया टुडे मैगजीन ने उनपर एक कवर स्टोरी छापी थी. इस अंक में इंडिया टुडे के पत्रकार प्रभु चावला ने लिखा था - "सोनिया गांधी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि देश की सबसे पुरानी पार्टी का एकमात्र नियंता नेहरू-गांधी परिवार ही है."

इंडिया टुडे मैगजीन का 5 अप्रैल, 2004 का अंक

कांग्रेस पार्टी को नेहरू-गांधी परिवार की 'थाती' बताते हुए प्रभु चावला 'क्रोनोलॉजी' के हिसाब से समझाते हैं कि कैसे अपने परिवार के व्यक्ति को शामिल करना इस परिवार का पैटर्न रहा है. वो बताते हैं कि सीताराम केसरी से 1998 में पार्टी की बागडोर अपने हाथों में लेने के पांच साल बाद सोनिया गांधी ने अपना राजनैतिक सहायक अपने परिवार से ही चुना. इस तरह उन्होंने पार्टी का नेतृत्व बाप-बेटी या मां-बेटे के हाथों में केंद्रित रखने की पारिवारिक परिपाटी ही जारी रखी है. जब भी मौका आया, इस परिवार ने अपने दो सदस्यों को सक्रिय राजनीति में उतारा और हर बार नवागंतुक 30-40 की उम्र के बीच का रहा है.

तथ्य पेश करते हुए प्रभु ने अपनी रिपोर्ट में बताया, "इंदिरा 42 वर्ष की उम्र में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं, संजय 34 की उम्र में अमेठी से जीते और राजीव 37वें वर्ष में पार्टी में सक्रिय हुए. इस तरह 34 वर्ष की माकूल उम्र में राहुल सक्रिय राजनीति में कूदे हैं."

2004 की ताजपोशी से यह साफ हो गया था कि गांधी परिवार के ठप्पे के बिना कांग्रेस का कोई बाजार मूल्य नहीं है. इसी बात को सत्तारूढ़ भाजपा और अन्य पार्टियां आज तक 'एक परिवार की पार्टी' बोलकर चुनावी रैलियों में भुनाते रहते हैं. मगर क्या वाकई राहुल गांधी आज भी महज अपने परिवार की बदौलत राजनीति में हैं, या सच्चाई इससे इतर है? इस बात का जवाब जानने से पहले यह समझना ज्यादा जरूरी है कि राहुल के राजनीति में आगमन के वक्त माहौल कैसा था. 

इंडिया टुडे की 2004 की रिपोर्ट के मुताबिक, राहुल और प्रियंका पहले से ही पार्टी के मामलों में सोनिया गांधी की मदद करते रहे थे, मगर "राहुल को संविधानेतर सत्ता में बनाए रखने के बदले सोनिया ने उन्हें मोर्चे पर उतारना मुनासिब समझा." ऐसा इसलिए क्योंकि सोनिया उनकी वैधानिक, पुख्ता करियर की शुरुआत चाहती थीं. 2004 में अमेठी जीतकर जब राहुल ने अपनी चुनावी संभावना साबित कर दी तो पार्टी के आला कमान की कुर्सी की राहें उनके लिए आसान हो गईं थीं. 

हालांकि सबने देखा कि कैसे 2019 में कांग्रेस की पुश्तैनी सीट अमेठी से स्मृति ईरानी ने अपनी जीत से यह साबित कर दिया था कि जनता केवल परिवार की वजह से ज्यादा दिन तक साथ नहीं दे पाएगी. 

2004 में ज्यादातर लोगों को राहुल गांधी के आर्थिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक विचारों से कोई राबता नहीं था और वे महज गांधी परिवार के अगले चिराग थे. उनके बारे में लोग और पत्रकार इतना ही जानते थे कि राहुल गांधी ने स्टीफेंस, हॉर्वर्ड और ट्रिनिटी कॉलेज से विकासशील देशों के अर्थशास्त्र के बारे में पढ़ाई की है. इसके अलावा एक तस्वीर थी जिसमें 14 साल के राहुल अपनी दादी इंदिरा गांधी की चिता के सामने राजीव गांधी के साथ खड़े थे.

इंदिरा गांधी की चिता के सामने राहुल गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी (बाएं से दाएं)/इंडिया टुडे मैगजीन

सात साल के बाद उनके पिता राजीव गांधी की भी हत्या हो जाती है. इस बार की तस्वीरों में राहुल थोड़े और जवान, थोड़े और संजीदा लगते हैं. 

अपने पिता राजीव गांधी की अर्थी कांधे पर उठाए राहुल गांधी/इंडिया टुडे

प्रभु चावला ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को भी स्पष्ट किया था कि 2004 में ही राहुल गांधी को क्यों राजनीति में उतारा गया. उनके मुताबिक, "इंदिरा ने नेहरू से जब पार्टी की बागडोर (शास्त्री के दो साल छोड़कर) संभाली तो उन्होंने युवा तुर्कों को आगे लेकर नई कांग्रेस बनाई थी. जब इंदिरा ने संजय को आगे किया तो उन्होंने युवक कांग्रेस के अपने दोस्तों के साथ पार्टी को नया स्वरूप दिया. इसी तरह राजीव ने भी नई कांग्रेस की नींव रखी. आधुनिक, शहरी और दून स्कूल की रंग वाली कांग्रेस."

प्रभु साफ करते हैं कि 2004 में सोनिया ने राहुल को भी नई कांग्रेस की नींव रखने का मौका दिया है. तब वे 34 साल के थे और 2009 के आम चुनावों तक 40 के हो जाते. इस समय तक करीब 30 करोड़ देशवासी 18 से 40 वर्ष के आयुवर्ग में शामिल होने वाले थे और शायद तब एक युवा कांग्रेसी नेता इस 'यंग' जनता के लिए ज्यादा मुफीद होता. शायद तब किसी को 'नमो फैक्टर' की कोई भनक नहीं लगी थी. 

राहुल के बारे कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ला ने इंडिया टुडे को 2004 में बताया था, "बारीक ब्यौरों के प्रति राहुल की जिज्ञासा से मैं काफी प्रभावित हूं. उनसे उत्तर प्रदेश के किसी क्षेत्र की बात कीजिए तो वहां के जाति समीकरण उनकी उंगलियों पर होते हैं." प्रिया सहगल, कणिका गहलोत और लक्ष्मी अय्यर ने 2004 की अपनी इंडिया टुडे की रिपोर्ट में लिखा, "हॉर्वर्ड-कैंब्रिज से पढ़े किसी से ऐसी उम्मीद भला कौन करेगा. वे ज्यादातर विदेश में रहे हैं फिर भी सामान्य हिंदी बोलते" हैं, जो मूल रूप से 'यूपी वाली हिंदी' है."

राहुल के समर्थन में कांग्रेस कार्यकर्ता/इंडिया टुडे मैगजीन

2004 में राहुल से दिल्ली में मिलने वाले उनकी बारीक़ समझ और हर मसले में गहरी दिलचस्पी से बेहद प्रभावित होते थे. उनके एक दोस्त ने 2004 में इंडिया टुडे को बताया था, "प्रियंका बेहद आकर्षक और व्यावहारिक हैं लेकिन राहुल पर नजर टिकती है. वे चुप रहते हैं लेकिन अहम सवाल करते हैं और विभिन्न मुद्दों पर सब कुछ जानना चाहते हैं." 

फिर धीरे-धीरे समय का पहिया घूमा और संसद में बिल फाड़ने से लेकर एक न्यूज़ चैनल के साथ राहुल का इंटरव्यू काफी 'वायरल' हुआ. 'पप्पू' और ना जाने क्या-क्या संज्ञाएं उनके नाम मढ़ दी गईं और रही-सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी थी. फिर कोरोना महामारी के बाद लोगों ने राहुल गांधी का नया रूप देखा. दाढ़ी बढ़ाकर पैदल चलते राहुल गांधी की संत वाली छवि बनाने की भी थोड़ी कोशिश कांग्रेस के मीडिया सेल ने की थी. हालांकि इसके बाद लद्दाख में अपनी 'बाइक राइड' और यूट्यूब इन्फ्लुएंसर्स के साथ वीडियो डालकर उन्होंने यूथ अपील देने की भी कोशिश की. मगर सवाल तो यह है कि इतने सब के बाद जनता उनके बारे में क्या सोचती है? 

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी

21 फरवरी 2024 के इंडिया टुडे के अंक में 'मूड ऑफ दी नेशन' सर्वे के नतीजे प्रकाशित किए गए थे. इस सर्वे के अनुसार 14 प्रतिशत लोगों ने माना था कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए सबसे योग्य व्यक्ति हैं. यह तब चौंकाता है जब आप इन्हीं नतीजों का मिलान 2019 के सर्वे के नतीजों से करेंगे और पाएंगे कि तब ऐसा मानने वालों की संख्या 34 प्रतिशत थी. यह सीधा-सीधा बताता है कि राहुल गांधी का सोशल मीडिया मेकओवर नरेंद्र मोदी के मंदिर, विकास और विदेश नीति के मुद्दे के सामने कहीं नजर नहीं आता. नरेंद्र मोदी को इस सर्वे में 55 प्रतिशत लोगों ने प्रधानमंत्री के लिए सबसे मुफीद उम्मीदवार बताया था. 

'मूड ऑफ दी नेशन' सर्वे में लोगों ने कहा कि कांग्रेस पार्टी स्थिर तो है मगर पर्याप्त प्रयास करती नजर नहीं आती. वहीं प्रधानमंत्री के पद के लिए भले ही जनता ने इस सर्वे में राहुल गांधी को नकार दिया हो मगर 34 प्रतिशत लोगों ने विपक्ष के नेता के तौर पर उनके प्रदर्शन को शानदार और 18 प्रतिशत लोगों ने अच्छा बताया. 

राहुल गांधी के राजनैतिक जीवन के अभी तक के सबसे बड़े 'हाईलाइट' भारत जोड़ो यात्रा की अगर बात करें तो लगभग आधे लोगों के लिए इसका कोई अर्थ नहीं दिखा. केवल 37 प्रतिशत लोगों ने कहा कि हां वो 2024 में वोट करते समय भारत जोड़ो यात्रा को तवज्जो देंगे. सवाल यह भी उठा कि क्या इस यात्रा के बाद राहुल गांधी की राजनीति और नेतृत्व के बारे में लोगों की राय बेहतर हुई है? इसके जवाब में 35 प्रतिशत लोगों ने हामी भरी मगर ज्यादातर लोगों का कहना था कि कांग्रेस नेता ने भले ही सफर लंबा किया मगर यह अपर्याप्त है. 32 प्रतिशत लोगों ने माना कि भारत जोड़ो यात्रा का कांग्रेस के लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. 

इस सर्वे ने साफ़ कर दिया कि भले ही 2024 के राहुल गांधी अपने 2004 वाले व्यक्तित्व से काफी परिपक्व दिखते हों मगर अभी तक जनता उन्हें देश के नेता के रूप में स्वीकार नहीं कर सकी है.

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