क्या था ग्राहम स्टेंस हत्याकांड, जिसके दोषी को अब 'अच्छे व्यवहार' के चलते रिहा कर दिया गया
साल 1999 में ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस को उनके दो बेटों के साथ जिंदा जला दिया गया था

बीते 16 अप्रैल को ओडिशा के क्योंझर जेल से एक शख्स बाहर निकला, जिसके गले में मालाएं थीं और चेहरा 25 साल की कैद के बाद आजादी की राहत लिए हुए. यह शख्स था महेंद्र हेम्बरम, जिसे ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो नाबालिग बेटों की हत्या के मामले में दोषी ठहराया गया था. जनवरी 1999 में हुए इस तिहरे हत्याकांड ने देश-दुनिया में तूफान खड़ा कर दिया था और इस घटना से वाजपेयी सरकार तक थर्रा उठी थी.
हेम्बरम, बजरंग दल के कार्यकर्ता दारा सिंह का साथी था, जिसके साथ मिलकर उसने स्टेंस और उनके बेटों को जिंदा जलाने की साजिश रची थी. विश्व हिंदू परिषद जिसकी इकाई बजरंग दल है, ने हेम्बरम की रिहाई का स्वागत किया. वीएचपी के संयुक्त सचिव केदार दास ने मीडिया से कहा, "यह हमारे लिए खुशी का दिन है। हम सरकार के फैसले का स्वागत करते हैं."
50 वर्षीय हेम्बरम को 25 साल की सजा के दौरान अच्छे व्यवहार के आधार पर रिहा किया गया है. पीटीआई के मुताबिक, राज्य सजा समीक्षा बोर्ड के फैसले के बाद जेल प्रशासन को मंगलवार को एक पत्र मिला जिसमें हेम्ब्रम की रिहाई की बात की गई थी. जेलर मनस्विनी नाइक ने बताया, "हेम्बरम को नियमों के तहत 25 साल बाद अच्छे व्यवहार के लिए रिहा किया गया है."
रिहाई के बाद हेम्बरम ने कहा, "मुझे धार्मिक रूपांतरण से जुड़े एक मामले में झूठा फंसाकर 25 साल जेल में रखा गया. आज मैं आजाद हुआ हूं." यह रिहाई सिर्फ एक कैदी की जेल से निकलने की कहानी नहीं. यह उस हत्याकांड को फिर से चर्चा में लाती है, जिसने सांप्रदायिक तनाव और न्याय की लड़ाई को नई परिभाषा दी थी.
जब आप 10 फरवरी, 1999 के इंडिया टुडे हिंदी का अंक खोलेंगे तो 10वां और 11वां पन्ना आपको काले रंग का मिलेगा. इस पर जो हेडिंग है वो लाल और पीले रंग से लिखी है - 'दहकता हुआ दाग'.
ये वाकई में भारत पर एक दाग ही था जब 22 जनवरी, 1999 को ऑस्ट्रेलिया के एक ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को धर्मांध दारा सिंह की अगुवाई में जिंदा जला दिया गया.
अगला वाक्य पढ़ने में जितना ही निर्मम लगे मगर पढ़िए जरूर! मानव शरीर जब जलाया जाता है तो आग की लपटें पीली होती हैं और लाल खून से सना मांस जलकर काला पड़ जाता है. जब आप एक जला हुआ शरीर देखेंगे तो आपको एहसास होगा कि क्यों केमिस्ट्री की क्लास में कार्बन एक अहम तत्व था. जलकर शरीर राख नहीं होता, काला पड़ जाता है. झुलसे हुए उस शरीर से बदबू आती है और यह दृश्य उस यातना से थोड़ा ही कम वीभत्स होता है जो जलने वाले पर बीतती है.
ग्राहम स्टेंस 1965 में अपने एक 'पत्र-मित्र' सांतनु सत्पथी से मिलने ओडिशा के बारीपद आए थे मगर कभी वापस नहीं जा सके. स्टेंस और सत्पथी का जन्मदिन भी एक ही दिन पड़ता था और समंदर पार की चिट्ठियों से हुई दोस्ती एक दिन इतनी प्रगाढ़ हो गई कि स्टेंस को ओडिशा आना पड़ा.
इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन के फरवरी 1999 के अंक में रुबेन बनर्जी लिखते हैं, "इस इलाके की सुंदरता के अलावा ऑस्ट्रेलिया के लेप्रसी मिशन की सहायता से पिछली सदी से यहां चल रहे लेप्रसी होम (कुष्ठ रोग चिकित्सालय) से वे (ग्राहम) अत्यंत प्रभावित हो गए थे. बमुश्किल स्कूली शिक्षा खत्म कर चुके स्टेंस ने अंततः: अपने जीवन का उद्देश्य पा लिया. उन्होंने लेप्रसी होम के लिए खुद को समर्पित कर दिया. इसके अलावा एवेंजेलिकल मिशनरीज़ सोसायटी के संयोजक और कोषाध्यक्ष होने के नाते बाइबल का उपदेश देने में वे मग्न हो गए."
ग्राहम की समर्पित सेवा ने बहुतों का दिल जीत लिया था. धाराप्रवाह ओडिया और स्थानीय संथाली बोली बोलने वाले स्टेंस और उनकी पत्नी ग्लेड्स, जिनसे '80 के दशक में उनकी शादी हुई, स्थानीय समाज के स्तंभ थे. बारीपद का अग्निकांड हो या पल्स पोलियो अभियान, स्टेंस दंपत्ति बढ़-चढ़कर लोगों की सहायता करने में जुटे रहते थे. हालांकि ईसाई उपदेशक की भूमिका का खामियाजा उन्हें अपने भयावह अंत से चुकाना पड़ा.
90 के दशक में महामारी, कुपोषण और निरक्षरता की मार से त्रस्त ओडिशा पिछड़ेपन की मार झेल रहा था. जाहिर है, धार्मिक सरगर्मी ऐसी जगहों पर ज्यादा हावी होती है. रुबेन बनर्जी ने अपनी रिपोर्ट में इस बारे में बात करते हुए लिखा था, "आदिवासियों के दिलो-दिमाग पर कब्जा जमाने के लिए ईसाई और हिंदू संगठनों के बीच होने बाली जोर-आजमाइश का अखाड़ा बन चुका है ओडिशा. पिछले साल राज्य के 30 में से 10 जिलों में हिंदुओं और ईसाइयों के बीच कम-से-कम 30 झड़पें हो चुकी हैं."
इस घटना से एक महीने पहले मनोहरपुर में एक और जंगल शिविर आयोजित कर स्टेंस ने आफत मोल ले ली थी. 14 वर्षों से ऐसे वार्षिक जंगल-शिविर आयोजित कर वे गांवों के नियमित दौरे करते और आदिवासियों को सार्वजनिक स्वास्थ्य से लेकर बाइबल तक विभिन्न विषयों की शिक्षा देते. तकरीबन 150 संथाल परिवारों के गांव में लगभग 22 परिवार ईसाई धर्म अपना चुके थे. स्टेंस की पत्नी ग्लेड्स ने रुबेन बनर्जी से बातचीत में कहा था कि "ग्राहम ने धर्मातरण कभी नहीं करवाया, वे तो बस यीशू का संदेश प्रचारित कर रहे थे." हालांकि दूसरे लोगों का मानना था कि उनके प्रचार की परिणति अंततः धर्मांतरण में ही होती थी. राज्य के हिंदू जागरण सामुख्य के संयोजक सुभाष चौहान ने इंडिया टुडे से बातचीत में कहा था, "वे इसलिए मारे गए क्योंकि धर्मांतरण करवा रहे थे. लोगों ने गुस्से और आवेश में आकर उनकी हत्या कर दी होगी."
दरअसल संथाल समुदाय के लोगों और ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों के बीच तनाव बढ़ने लगा था. स्टेंस के गांव में पहुंचने से उन्हें उन लोगों से भी हिसाब चुकाने करने का मौका मिल गया जिन्होंने परंपरागत रिवाजों के खिलाफ जाने की जुर्रत की थी. इधर यूपी के इटावा जिले के एक 'धर्मांध हिंदू' दारा सिंह उनका हथियार बने.
रुबेन बनर्जी की रिपोर्ट के मुताबिक दारा सिंह सिंह संथाल, कुल्हो और बथूरिया आदिवासियों की मदद से 1996 से ही क्योंझर-मयूरभंज क्षेत्र में मुसीबतें पैदा कर रहा था. उसके खिलाफ 9 मामले दर्ज थे और जब भी इस क्षेत्र में सांप्रदायिक हिंसा भड़कती, दारा सिंह का नाम पुलिस रिकार्ड में जरूर आता. पुलिस अपनी रिपोर्ट्स में दारा सिंह को एक सरगना और बजरंग दल का सदस्य बताती है लेकिन ओडिशा के तत्कालीन बजरंग दल के संयोजक ने दारा सिंह से किसी भी तरह से जुड़े होने को गलत बताया.
उस रात स्टेंस और उनके बेटे मनोहरपुर गांव के प्रार्थना घर के बाहर खड़ी स्टेशन वैगन में ही सो गए और उनके सहयोगी अंदर, तभी भीड़ ने गाड़ी पर धावा बोल दिया. करीब सौ मीटर की दूरी पर कुछ संथाल युवक-युवतियां ढोलक की थाप पर ढांगरी नृत्य कर युवापन पा लेने का जश्न मना रहे थे. उन्होंने वह पूरा हादसा देखा लेकिन कुछ किया नहीं. 23 जनवरी की सुबह तमाम विदेशी अख़बारों ने इस घटना के बारे में कड़े शब्दों में लिखा और द शिकागो ट्रिब्यून ने तो इसे 'एक राष्ट्रवादी हिंदू पार्टी की साझा सरकार की छत्रछाया में हिंदू कट्टरपंथियों का बढ़ता दुस्साहस' तक बता दिया.
देश में हुई प्रतिक्रिया के बारे में रुबेन बनर्जी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, "इस घटना से प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी शर्म से सिर झुका लिया. हर तरफ से उनकी सरकार की भर्त्सना होने लगी. राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने यह कहते हुए मानो सबकी ओर से क्षोभ व्यक्त किया कि यह नृशंस हत्याकांड समय की कसौटी पर खरी उतरी सहिष्णुता और सद्भाव का घोर उल्लंघन है. इस हत्याकांड का आरोप विहिप और आरएसएस से संबद्ध एक उग्र हिंदू संगठन बजरंग दल पर लगने से प्रधानमंत्री ने तीन कैबिनेट मंत्रियों को मनोहरपुर रवाना कर दिया और सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश की अध्यक्षता में घटना की न्यायिक जांच की घोषणा की." वहीं वाजपेयी सरकार में केंद्रीय रक्षा मंत्री रहे जॉर्ज फर्नांडेस ने इसे सरकार गिराने की एक साजिश बताया था.
ग्राहम स्टेंस हत्याकांड मामले में कुल 51 लोग गिरफ्तार किए गए, लेकिन तीन साल के भीतर 37 को बरी कर दिया गया. बाकी 14 आरोपियों में से सिर्फ दो—दारा सिंह और महेंद्र हेम्बरम—को दोषी ठहराया गया और उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.
दारा सिंह को शुरू में सितंबर 2000 में मौत की सजा दी गई थी, लेकिन 2005 में ओडिशा हाई कोर्ट ने इसे उम्रकैद में बदल दिया. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा. सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि यह अपराध 'रेयरेस्ट ऑफ दी रेयर' की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए दारा सिंह को मौत की सजा नहीं दी जा सकती. इसे लेकर कई सिविल एक्टिविस्ट्स ने सुप्रीम कोर्ट की आलोचना भी की थी.
दारा सिंह ने मई 2000 में इंडिया टुडे मैगजीन को दिए एक बयान में कहा था, "नहीं! मुझे कोई पछतावा नहीं, और कभी नहीं होगा."
आज दारा सिंह उम्रकैद की सजा काट रहा है. अगस्त 2024 में उसने सुप्रीम कोर्ट में रिहाई के लिए दया याचिका दायर की. एक और दया याचिका भारत के राष्ट्रपति के पास भेजी गई है. मार्च 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा सरकार को निर्देश दिया कि वह ग्राहम स्टेंस और उनके दो बेटों की हत्या के लिए जेल में बंद "पश्चाताप करने वाले" दारा सिंह की सजा माफी की याचिका पर फैसला ले.
ग्राहम स्टेंस की पत्नी ग्लेड्स स्टेंस 2004 में अपने वतन ऑस्ट्रेलिया लौट गई थीं. उनके दो बेटे तो इस दुर्घटना का शिकार हो गए थे मगर एक बेटी है जो फिलहाल ऑस्ट्रेलिया में ही डॉक्टर है. ग्लेड्स और उनकी बेटी उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन ग्राहम के गांवों के दौरे पर उसके साथ नहीं थे. ग्लेड्स को 2005 में भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा और 2015 में उन्हें सामाजिक न्याय के लिए मदर टेरेसा मेमोरियल अवार्ड भी मिला.
ग्राहम स्टेंस की हत्या की रिपोर्ट की शुरुआत में ही रुबेन बनर्जी ने उस पूरे घटनाक्रम का एक चित्र उकेरा था जो वीभत्स होने से भी ज्यादा दुखद था. उन्होंने लिखा, "आखिरी घड़ी भी उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं कर सकी. लपटों में दहककर ढांचे में तब्दील हुए अनचीन्हे तीन शरीर आपस में एकदूसरे से लिपटे हुए थे. लगता था जैसे अंतिम क्षणों तक उन्होंने उत्तेजित भीड़ से एक-दूसरे को बचाने की बेबस और नाकाम कोशिश की हो."