2004 की सूनामी जिसने दुनिया का 'एक सेकंड' हमेशा के लिए मिटा दिया
दुनिया का दूसरा सबसे लंबा समुद्री किनारा मरीना बीच चेन्नई के समाज की लाइफ-लाइन है. मगर 26 दिसंबर को समुद्री लहरों ने मानो लक्ष्मण रेखा लांघकर मौत और तबाही का नया महाकाव्य रचने की ठान ली थी

2004 वो साल था जब भारत की आपदाओं के शब्दकोष में एक नया शब्द जुड़ा - सूनामी. अमेरिकी वैज्ञानिकों के मुताबिक, इसकी वजह से पृथ्वी अपनी धुरी से डगमगा गई और उसका परिभ्रमण तेज हो गया जिससे दिन हमेशा के लिए एक सेकंड का कुछ हिस्सा कम हो गया.
इंडोनेशिया के सुमात्रा में समुद्र तल में भूकंप से उठीं उत्ताल समुद्री लहरों, जिन्हें जापानी भाषा में सूनामी कहते हैं, के कारण प्रभावित देशों में मौत के आंकड़े लाख को पार कर गए थे. पश्चिमी तट पर केरल में कोल्लम से लेकर पूर्वी तट पर तमिलनाडु के नागपट्टिनम और आंध्र प्रदेश के नेल्लूर जैसी अनगिनत जगहों पर बिखरे मलबे में से शव निकालने का सिलसिला कई दिनों तक जारी रहा.
2004 में आई इस सूनामी के बारे में इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन के जनवरी 2005 के अंक में कवर स्टोरी प्रकाशित हुई थी. कई रिपोर्टर्स ग्राउंड से इतनी भयावह बातें बता रहे थे जिसे पढ़कर लोग हजारों किलोमीटर दूर भी दहशत में आ गए थे.
तमिलनाडु के नागपट्टिनम से उस वक्त इंडिया टुडे के रिपोर्टर रहे एम.जी. राधाकृष्णन ने लिखा था, "चेन्नई से 320 किमी पूर्व में स्थित नागपट्टिनम जिले पर सूनामी की सर्वाधिक मार पड़ी. यहां के एक चर्च में क्रिसमस के मौके पर विशेष प्रार्थना के लिए आसपास के इलाकों और देशभर से हजारों श्रद्धालु जुटे थे. इस मौके पर तैयार बड़ा पंडाल अगले दिन उन बदकिस्मत श्रद्धालुओं के लिए चीरघर बन गया. समुद्री लहरों के शिकार 300 से ज्यादा लोगों के शव वहां एक कतार में रखे थे. विडंबना देखिए कि समुद्र तट से सिर्फ 200 मीटर की दूरी पर स्थित मदर मेरी के नाम पर यह चर्च मछुआरों की समुद्र से रक्षा के लिए बनाया गया था. यहां मदर मेरी को सेहत और जिंदगी को देवी के तौर पर पूजा जाता है. मगर उस वक्त चर्च के सामने फैला समुद्र तट युद्ध स्थल जैसा लग रहा था; नष्ट हुई दुकानें, मकान, टूटे वाहन और मरे जानवर हर तरफ बिखरे दिखाई देते थे. अकेले नागपट्टिनम जिले में रेड क्रॉस के स्वयंसेवकों ने हजारों शवों को दफन किया था."
अंडमान से सौमित्र घोष ने इस त्रासदी के बारे में जनवरी 2005 के इंडिया टुडे हिंदी के अंक में बताया, "भारतीय वायुसेना के विमान एएन-32 और डॉर्नियर जब आइएनएस उत्कर्ष (जो पोर्ट ब्लेयर में नौसैनिक हवाई अड्डे के रूप में काम कर रहा था) पर लौटे तो इस बार केवल वे लोग साथ लाए गए जो सूनामी लहरों की विनाशलीला से किसी तरह बच गए थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि इन विमानों में ताबूतों के लिए कोई जगह नहीं बची थी."
दुनिया का दूसरा सबसे लंबा समुद्री किनारा मरीना बीच चेन्नई के समाज की लाइफ-लाइन है. मगर 26 दिसंबर को समुद्री लहरों ने मानो लक्ष्मण रेखा लांघकर मौत और तबाही का नया महाकाव्य रचने की ठान ली थी.
चेन्नई से इंडिया टुडे के साथी सरवनन ने लिखा था, "सुबह करीब 9.15 बजे और फिर 9.50 बजे, दोबार समुद्री लहरों ने मरीना के बालू को अचानक विशाल झील में बदल दिया और 110 लोगों की जान इसमें चली गई. इनमें से करीब 26 शव नहीं पहचाने जा सके थे. सूनामी लहरें 10-15 फुट ऊंची और कई किलोमीटर मोटी पानी की दीवार बनकर भयंकर वेग से चढ़ आईं."
सूनामी के बाद इसकी तैयारी को लेकर खूब सवाल खड़े किए गए थे. सरकार ने भी समझा था कि भले ही ऐसी आपदाओं को रोका ना जा सके मगर इनकी तैयारी बहुत जरूरी है. इंडिया टुडे मैगजीन में उस वक्त अमरनाथ के मेनन ने भी लिखा था, "प्रलय का पर्याय मानी जाने वाली सूनामी तरंगों को रोक पाना मुमकिन नहीं पर उनका असर कम किया जा सकता है. इस खतरे के प्रति उपेक्षा भाव के चलते ही भारी जनहानि की नौबत बनी."
इसी के बाद भारत सरकार ने आनन-फानन में डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट 2005 पारित किया जिसके तहत NDMA और NDRF जैसी टीम्स का गठन हुआ. केंद्र से लेकर जिले के स्तर पर अफसरों को आपदा प्रबंधन की कमान सौंपी गई ताकि हर स्तर पर तैयारी पुख्ता की जा सके. लोगों को आपदाग्रस्त जगहों से सुरक्षित निकालने और ऐसी किसी भी घटना की पूर्वसूचना के लिए वैज्ञानिकों की पूरी टीम ने काम किया. इसके अलावा हैदराबाद में 2007 में सूनामी वार्निंग सिस्टम का स्टेशन बनाया गया जो भारतीय महासागर में भविष्य में आने वाले सूनामी के लिए पहले से ही अलर्ट करने में सक्षम है.
अभी की बात करें तो ओडिशा के दो गांव - वेंकटरायपुर और नोलियासाही, आज 'सूनामी रेडी' हैं. उसी एक्ट और उस वक्त किए गए काम के बदौलत आज चीन, जापान, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया के साथ भारत डिजास्टर मैनेजमेंट के क्षेत्र में एशिया के सबसे समृद्ध देशों में से एक है.