विपक्षी एकता की इस 36 साल पुरानी मिसाल से आज का इंडिया गठबंधन क्या सीख सकता है?
जैसा कि 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले विपक्षी दलों ने इंडिया गठबंधन बनाकर बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश की है, कुछ वैसा ही 1988 में भी हुआ था जब वीपी सिंह ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोला था

लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा के खिलाफ इंडिया ब्लॉक का शक्ति प्रदर्शन 1988 में लोकसभा चुनावों से पहले विपक्षी मोर्चा बनाने के प्रयासों की याद दिलाता है. विपक्ष की दहशत का 1989 के चुनावों तक यह असर हो गया था कि बोफोर्स घोटाले की आंच और विपक्ष की गोलबंदी से घबराए राजीव गांधी को अयोध्या से अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत करनी पड़ी थी.
इतना ही नहीं उन्होंने 'राम राज्य' का वादा भी किया जिसे आज भाजपा अपना अघोषित लक्ष्य बता रही है. मगर विपक्ष ने ऐसा क्या किया था जो इतनी जबरदस्त तरीके से 400 सीटें जीतने वाली कांग्रेस भी घुटने पर आ गई थी? और तब कैसी थी 'एकजुट विपक्ष' की तैयारी?
इंडिया टुडे मैगजीन के 15 अगस्त, 1988 के अंक में तब के विपक्षी गठजोड़ पर एक कवर स्टोरी प्रकाशित हुई थी जिसे प्रभु चावला और पंकज पचौरी ने लिखा था. आज का इंडिया गठबंधन भी चाहे तो उस दौर की तैयारियां पढ़कर थोड़ी अपनी धार जरूर तेज कर सकता है.
पंकज पचौरी और प्रभु चावला अपनी रिपोर्ट शुरू करते हुए लिखते हैं, "वे सब के सब किसी उबाऊ नौटंकी के कलाकार सरीखे दिखते थे. दो-टूक बात कहने वाले देवीलाल बिस्तर पर पड़े-पड़े ही अपने सिपहसालारों को निर्देश दे रहे थे. चिकने-चुपड़े अजीत सिंह कभी यहां तो भी वहां फिरकनी-से चक्कर काट रहे थे. अपनी खिचड़ी दाढ़ी के लिए मशहूर दुबले-पतले चंद्रशेखर अलग ही खिचड़ी पकाने में व्यस्त थे जबकि बीजू पटनायक के जिम्मे भोज-वार्ताएं आयोजित करने का काम था. और इस पूरे नाटक के नायक विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने कंप्यूटर पर विपक्षी एकता के जोड़-घटाव का पेचीदा सवाल हल करने में लगे हुए थे. लगता था कि ये सारे कलाकार विपक्षी एकता के कथानक वाले इस नाटक को मंजिल तक नहीं पहुंचा पाएंगे. पर अचानक पटाक्षेप होने से जरा भर पहले हुई घटनाओं ने सबको चौंका दिया."
वाकई चौंकने वाली बात तो थी. हफ्तों की बतकही के बाद चार 'मध्यमार्गी' पार्टियों ने विलय कर लिया था - जनता पार्टी , लोकदल, कांग्रेस (एस) और जनमोर्चा. और नई पार्टी का नाम था - समाजवादी जनता दल. रिपोर्ट लिखने वाले दोनों पत्रकारों को यह भान था कि 1977 की भावना की याद ताजा करवाने वाली ये पार्टियां अगर ठान लें तो चुनावों के लिए जरूरी 'आंधी' खड़ी करने में इन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होगी.
आज के इंडिया गठबंधन की तरह ही सभी विपक्षी पार्टियों के साथ रिश्तों की समस्या वीपी सिंह के सामने मुंह बाए खड़ी थी. इसके अलावा, वही सवाल जो आज देशभर का मीडिया और राजनीति पर नजर रखने वाले लोग जानना चाहते हैं, तब भी मौजूद था - "इस गठबंधन की डोर कितनी पक्की साबित होगी?"
1988 की रिपोर्ट के मुताबिक, वीपी सिंह ने विपक्ष को तीन भागों में बांटा था. एक, मुख्य नेताओं का गुट; दो, मझोले स्तर के नेताओं का गुट और तीन, बाकी बचे हुए विपक्षी नेता. मुख्य गुट में चंद्रशेखर, रामकृष्ण हेगड़े, नंदमूरि तारक रामराव, देवीलाल, अजीत सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, हेमवतीनंदन बहुगुणा और ज्योति बसु जैसे नेता थे. इन नेताओं के सक्रिय समर्थन के बिना विपक्षी एकता नहीं हो सकती थी.
दूसरे गुट में भैरो सिंह शेखावत, बीजू पटनायक, मधु लिमये, मधु दंडवते, मुलायम सिह यादव, एम. करुणानिधि और प्रफुल्ल महंत जैसे नेता थे. तीसरे गुट में छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के सदस्य जो किसी भी तरह की विपक्षी एकता के विरोधी थे.
पंकज पचौरी और प्रभु चावला ने तब वीपी सिंह पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, "यह विडंबना ही है कि विपक्षी एकता कराने की जिम्मेदारी - मौका, संयोग, मान-मनौवल, भावनात्मक दबाव और खुशामद के जरिये वी.पी. सिंह पर पड़ी, जिन्होंने पहले कभी राजनैतिक पद न लेने का संकल्प किया था. और यहां तक कि वे इलाहाबाद उपचुनाव भी नहीं लड़ना चाहते थे. यानी विरोधाभासों से भरे वी.पी. सिह संतुलन बनाने का काम कर रहे हैं. यदि इसमें वे सफल हो जाते हैं तो उससे देश के राजनैतिक परिदृश्य में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता है."
कांग्रेस से निकाले जाने की बात पर 1988 की रिपोर्ट में दर्ज है कि वीपी सिंह को जब उन्हीं की पार्टी से बाहर फेंक दिया गया था तब किसी संगठन या पार्टी ने उनका समर्थन तक नहीं किया था. लेकिन उन्होंने जब ऊंचे पदों पर फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगानी शुरू की और पूरे देश में उनकी सभाओं में भारी भीड़ खिंचने लगी तब विपक्षी पार्टियों का ध्यान उनकी तरफ गया.
1988 लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी की शर्मनाक पराजय के बाद ही विपक्षी पार्टियों को सद्बुद्धि आई और उनके नेता एकता पर गंभीरता से बातचीत करने लगे. सात में से चार लोकसभा सीटों पर कांग्रेस की हार और एक सीट (उधमपुर) पर उसकी संदिग्ध और बहुत कम अंतर से जीत ने संकेत दे दिया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता घट रही है. इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण संदेश यह भी था कि संयुक्त विपक्ष के समर्थन से वीपी सिंह राजीव के नेतृत्व को कड़ी चुनौती दे सकते हैं.
तत्कालीन कांग्रेस (एस) के नेता और लोकसभा के जाने-माने सदस्य के.पी. उन्नीकृष्णन ने इंडिया टुडे से कहा था, "वीपी सिंह को यह भूमिका निभानी ही है. विपक्ष में वे अकेले ऐसे नेता हैं जिन्हें विपक्षी पार्टियों के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं का भरोसा हासिल है."
विलय के बाद बनी पार्टी पर पंकज पचौरी और प्रभु चावला ने 1988 की इंडिया टुडे की रिपोर्ट में बताया, "पार्टी का अपना कोई वैचारिक आधार भी नहीं है. यह लोकदल के ग्रामीण झुकाव से लेकर कांग्रेस (एस) के कुलीन समाजवाद तक के वैचारिक ध्रुवों के बीच हिचकोले खा रही है."
भाजपा, जो आज 2024 में सत्तारूढ़ है, इसके साथ विपक्षी मोर्चे के जुड़ने की एक बड़ी मजेदार कहानी इस रिपोर्ट में मिली. रिपोर्ट के मुताबिक, "भाजपा के साथ क्या रिश्ता रखें, यह सवाल मध्यमार्गी पार्टियों के लिए हमेशा टेढ़ी खीर रहा है. इस बार भी यही बात उठी. देवीलाल ने सभी विपक्षी नेताओं को एक चिट्ठी में तफसील से लिखा था कि देश के इतिहास में इस नाजुक मोड़ पर विपक्षी एकता क्यों जरूरी है. पर जैसे ही यह चिट्ठी मुख्यमंत्री के हाथ से निकली, इसमें पूर्व समाजवादी और अब जनता पार्टी के नेता मधु लिमये के हाथ से लिखा एक नोट रहस्यमय तरीके से जोड़ा गया (जिस पर उनके दस्तखत नहीं थे) और सब लोगों में बांट दिया गया. इस नोट में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में कुछ तीखी बातें लिखी गई थीं. 1978-79 में भी लिमये ने संघ वाला मुद्दा उठाकर जनता सरकार गिराने में बड़ी भूमिका निभाई थी."
जाहिर है कि इस नोट पर भाजपा के नेता नाराज हुए थे और इसको लेकर पार्टी ने जवाब-तलब भी किया था. तब हरियाणा में भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने वाले देवीलाल इससे मुश्किल में पड़ गए थे. शुरू में तो उन्होंने ऐसा नोट भेजने से इनकार किया था लेकिन बाद में बताया कि यह नोट उनके पास मधु लिमये ने भेजा था जो असावधानीवश उस चिट्ठी के साथ लग गया. खैर 1988 की इस विपक्षी 'एकता' में ऐसे और भी मौके आए जब एकजुट होने की कवायद में दिक्कतें हुईं.
आज के एक पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मालिक और केरल के मौजूदा राज्यपाल आरिफ मुहम्मद खां का भी जिक्र इस दौर में आता है. पंकज और प्रभु लिखते हैं, "अभी तक की लड़ाई में वी.पी. सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले आरिफ मुहम्मद खां ने पूर्व वित्तमंत्री की आलोचना की. उन्हें आपत्ति इस बात पर थी कि वी.पी. सिंह ने इलाहाबाद में चुनाव प्रचार के लिए उन्हें तो बुलाया नहीं जबकि उनके राजनैतिक विरोधी और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता सैयद शहाबुद्दीन चुनाव प्रचार करने पहुंच गए.
इस तरह अरुण नेहरू, रामधन और सत्यपाल मलिक जैसे लोगों को भी लगा कि वे दरकिनार कर दिए गए हैं और उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री संजय सिंह के नेतृत्व में ठाकुर लोग ही वी.पी. सिंह के करीबी हो गए हैं."
वीपी सिंह को तब तक एहसास हो गया था कि जब तक वे दूसरे नेताओं के मन में बैठे इस डर और ईर्ष्या को खत्म नहीं करेंगे, बंटाधार हो जाएगा. इसलिए उन्होंने हर नेता से अलग-अलग मिलकर बात करने का फैसला किया. हर एक को भरोसा दिलाया कि नेता बनने में उनकी दिलचस्पी नहीं है. उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस कर के इस बात की घोषणा तक कर दी थी कि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं.
जिस मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने पर वीपी सिंह के खिलाफ आंदोलन हुए, इसको लेकर भी विपक्षी खेमों में सभी मत अलग थे. रिपोर्ट के मुताबिक, "शुरुआती बातचीत में ही लोकदल और जनता पार्टी के लोगों ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का वादा करा लेने की कोशिश की. जनता शासनकाल में गठित यह आयोग पिछड़ी जातियों के लिए नौकरी में आरक्षण का सुझाव देने के कारण काफी विवादास्पद हुआ था. अभी यह मुद्दा थोड़ा शांत है लेकिन खतरा बरकरार है कि इससे पूरा विपक्ष कभी भी जातिगत आधार पर बंट सकता है."
यह तो विपक्ष की बात थी, मगर यह जानना भी जरूरी है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार उस दौरान विपक्ष के बारे में क्या सोचती थी. पंकज पचौरी और प्रभु चावला की रिपोर्ट के मुताबिक, विपक्षी एकता से सत्तारूढ़ दल भी शायद परेशानी महसूस कर रहा था लेकिन ऊपरी तौर पर वह इसे मानो हवाई उड़ान बताता रहा. तत्कालीन कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद ने तब इस पर कहा था, "देश पहले मौकापरस्त विपक्षी गठबंधन के चलते घाटा सह चुका है. उनके पास महज राजीव गांधी हटाओ जैसा नकारात्मक कार्यक्रम ही है और जितनी पार्टियां हैं, उतने ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी हैं."
यह सुनकर लगता है मानो 2024 में कोई भाजपा का नेता इंडिया गठबंधन के बारे में बयान दे रहा हो. 2024 के नतीजे तो काल के गाल में हैं मगर 1989 के चुनावों में इस विपक्षी एकता ने कांग्रेस को पटखनी दे दी थी. मगर बाद में, जैसी आशंका थी, लालकृष्ण आडवाणी की बिहार में गिरफ़्तारी और मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर वीपी सिंह की सरकार रवाना हो गई थी. अब देखना है कि 2024 के लिए इंडिया गठबंधन क्या इसी विपक्षी एकता की मिसाल दोहरा सकता है.